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शनिवार को 12:22 बजे {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=छंद-मुक्त / प्रताप नारायण सिंह
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<poem>
फिर वही दिन...
निर्वाचित मौन में झूलता हुआ।
धरती ने धूप पहन ली है
और आकाश में कोई आदेश लटका है।
सड़कों पर शोक की लकीरें हैं,
पर झंडे अब भी फहर रहे हैं
एक संज्ञा-शून्य गर्व के प्रतीक की तरह।
कितने ही चेहरे हैं
जो अपनी ही व्यथा से अपरिचित हैं।
वे बोलते तो हैं
पर उनकी आवाज में कोई सत्य नहीं
बस व्यवस्था का अभ्यास है।
कहीं कोई बच्चा
रेत में अपनी परछाई खो देता है,
कहीं कोई माँ
समाचार बन जाती है।
राष्ट्र एक प्रयोगशाला सा लगता है,
जहाँ पीड़ा का रसायन
हर नए नियम में मिलाया जाता है।
विश्वास-
रिपोर्टों में दर्ज होता है;
सत्य -
संदेह के बाद बचा हुआ अवशेष है;
और न्याय-
सत्ता की मेज पर रखा
एक प्रयोगात्मक शब्द।
कभी-कभी लगता है,
हम सब
अपने युद्ध के सिपाही नहीं
अपितु
राष्ट्रीय संवेदना के शव हैं।
फिर भी,
रात के अंतिम क्षणों में
कोई दीया झिलमिलाता है,
जैसे किसी ने कहा हो-
“अभी कुछ शेष है।”
मैं उसी शेष में जीता हूँ,
जहाँ सत्य और झूठ के बीच
एक बहुत पतली रेखा है
जो हर सुबह मिटाई जाती है,
और हर साँझ फिर उभर आती है।
</poem>