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==कवि डा. बृजेन्द्र अवस्थी की आवाज खामोश==
[[चित्र:LogoJagran.gif|left|thumb|184px|jagran 23 january 2007]]
लखनऊ/बदायूं। राष्ट्रीय भावनाओं के चितेरे कवि डा. बृजेन्द्र अवस्थी की ओज भरी जोशीली आवाज आज हमेशा-हमेशा के लिए खामोश हो गयी। बीती रात उनका यहां पीजीआई में निधन हो गया। वे 77 वर्ष के थे। मुख्यमंत्री के निर्देश पर उनका शव बदायूं पहुंचा। जहां कछलाघाट पर अश्रुपूरित नेत्रों के बीच राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनके पुत्र राजीव अवस्थी ने उन्हें मुखाग्नि दी। पीजीआई में भर्ती डा. अवस्थी रात करीब दो बजे अंतिम सांस ली। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के प्रतिष्ठित अवंतीबाई सम्मान से अंलकृत होने के साथ 30 से ज्यादा पुस्तकों व 5 महाकाव्यों के रचयिता डा.अवस्थी की काव्य रचनाओं में तापसी, छत्रपति शिवाजी, वीर बजरंग बली प्रमुख हैं। उनके निधन का समाचार सुन कर मुख्यमंत्री पीजीआई पहुंचे और शोक संतप्त पुत्र-पुत्रियों व दामाद को ढांढस बंधाया। बदायूं में पुलिस गारद ने उन्हें अंतिम सलामी दी। डीएम व एसएसपी समेत अनेक लोगों ने उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किये।
==..मेरी कलम बिके तो मेरा सिर कलम कर देना ==
[[चित्र:LogoJagran.gif|left|thumb|184px|jagran 23 january 2007]]
यह वह चंद पंक्तियां हैं, जिनसे डा. बृजेंद्र अवस्थी के स्वभाव का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। संघर्ष स्वाभिमान और सफलता यह शब्द राष्ट्रकवि डा.अवस्थी के जीवन के मूलमंत्र रहे। वैसे तो उनके व्यक्तित्व को एक कलम और चंद पन्नों के दायरे में समेटना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है, लेकिन इतना अवश्य है कि अपनी सोच के समुद्र में लेखनी को आकण्ठ डुबोने वाले डा.अवस्थी की प्रत्येक अभिव्यक्ति स्वाभिमान और राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रकट करती है। संसार में कुछ विरले ही होते हैं जिनका व्यक्तित्व कुछ शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। कुछ ऐसे ही थे कविवर डा.बृजेंद्र अवस्थी, जिनके हृदय में वात्सल्य का सागर था तो देश की वर्तमान परिस्थितियों के प्रति बाहरी वेदना भी। वाग्देवी मां सरस्वती के प्रसाद से उन्होंने अनेक उत्कृष्ट रचनाएं कर हिन्दी काव्य जगत को समृद्ध बनाया। डा.अवस्थी ने अपने जीवन में न केवल प्रचुर साहित्य का सृजन किया, बल्कि 1960 के बाद अपनी पहचान बनाने वाले कवियों को बनाने संवारने में पितृवत वत्सलता दी। स्वभाव की बात करें तो डा.अवस्थी बड़े ही विनम्र थे। छोटों से अगाध प्रेम, हमउम्र के लोगों से मैत्रीपूर्ण व्यवहार और बड़ों का आदर उनकी खूबी थी। स्वाभिमान की भावना तो उनमें कूट-कूट कर भरी थी। जीवन भर उन्होंने न तो किसी से कुछ मांगा और न ही किसी के समान गिड़गिड़ाए। सिंह सी गर्जना उनकी कविताओं में ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व में भी थी। उनकी कविता का हर शब्द बोलता था। उनके जीवन की सच्चाई और ईमानदारी इन पंक्तियों से साफ परिलक्षित होती है-
सरस्वती मां से प्रार्थना करते हुए डा.अवस्थी लगभग हर मंच से अपनी यह पंक्तियां जरूर पढ़ते थे। साहित्यकार डा.रघुवीर शरण शर्मा उनके प्राचार्य पद के दिनों को याद करते हुए लिखते हैं कि उन्होंने कभी भी कुर्सी के बुरे रसों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और सदा स्नेह लुटाते रहे। वीर रस का कवि होने के बावजूद उनके हृदय में सदा दया, ममता और स्नेह की लहरें हिलोरें लेती रहती थीं।
==बुद्धिजीवियों की ही नहीं मन की भाषा है हिंदी: चक्रधर ==
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