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सर्दियाँ (३) / कुँअर बेचैन

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मुँह में धुँआ, आँख में पानी

लेकर अपनी रामकहानी

बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिए लिहाफ़ दिसंबर।


मेरी कुटिया के सम्मुख ही

ऊँचे घर में बड़ी धूप है

गली हमारी बर्फ़ हुई क्यों

आँगन सारा अंधकूप है?

सिर्फ़ यही चढ़ते सूरज से माँग रहा इंसाफ़ दिसंबर।


पेट सभी की है मजबूरी

भरती नहीं जिसे मजबूरी

फुटपाथों पर नंगे तन क्या-

हमें लेटना बहुत ज़रूरी?

इस सब चाँदी की साज़िश को कैसे करदे माफ़ दिसंबर।


छाया, धूप, हवा, नभ सारा

इनका सही-सही बँटवारा

हो न सका यदि तो भुगतेगी

यह अति क्रूर समय की धारा

लिपटी-लगी छोड़कर अब तो कहता बिल्कुल साफ़ दिसंबर।

'''''-- यह कविता [[Dr.Bhawna Kunwar]] द्वारा कविता कोश में डाली गयी है।<br><br>'''''
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