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::कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।<br>::संयोग एषां न त्वात्मभावा-दात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः॥२॥<br>
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::कहीं मूल कारण काल को कहीं प्रवृति को कारण कहा,<br>::कहीं कर्म कारण तो कहीं, भवितव्य को माना महा,<br>::पाँचों महाभूतों को कारण, तो कहीं जीवात्मा,<br>::पर मूल कारण और कुछ, जिसे जानता परमात्मा। [ २ ]<br><br>
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::तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः।<br>::अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम्॥४॥<br>
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::यह विश्व रूप है चक्र उसका , एक नेमि केन्द्र है,<br>::सोलह सिरों व् तीन घेरों, पचास अरों में विकेन्द्र है।<br>::छः अष्टको बहु रूपमय और त्रिगुण आवृत प्रकृति है,<br>::इस विश्व चक्र में सम अरों, अंतःकरण की प्रवृति है। [ ४ ]<br><br>
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::सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते अस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।<br>::पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति॥६॥<br>
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::है जीविका आश्रय जगत, परब्रह्म प्रभु परमात्मा,<br>::स्व कर्मों के अनुरूप घूमे, चक्र में जीवात्मा।<br>::वह ब्रह्म में यदि लीन हो तो, जन्म मृत्यु से मुक्त हो,<br>::होकर अमियमय शुद्ध, शाश्वत ब्रह्म से संयुक्त हो। [६]<br><br>
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::संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः।<br>::अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृ-भावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥८॥<br>
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::चेतन व जड़ संयोग से, अव्यक्त -व्यक्त जो जग यहाँ,<br>::धारक व पोषक ब्रह्म तो, जीवात्मा भोक्ता यहाँ।<br>::विषयों के भोगों से, प्रकृति आधीन बंधता जीव है,<br>::हो प्रभु अहैतु की कृपा, तो मुक्त होता जीव है। [८] <br><br>
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::क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।<br>::तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्व भावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥१०॥<br>
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::जीवात्मा अक्षय, अमर, क्षयशील प्रकृति की वृति है,<br>::जड़ तत्व चेतन आत्मा में, प्रभुत्व प्रभु की शक्ति है।<br>::उसका सतत जो स्मरण, और ध्यान में तन्मय रहे,<br>::तो अंत में माया निवृति और चित्त में चिन्मय रहे। [१०] <br><br>
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::एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।<br>::भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥१२॥ <br>
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::परब्रह्म अपने हृदय स्थित, एक मात्र ही ज्ञेय है,<br>::इससे परम और चरम, कोई भी नहीं, न श्रेय है।<br>::जीवात्मा जड़ वर्ग के, प्रेरक परम प्रभु ब्रह्म हैं,<br>::वह ही नियामक ज्ञात हो तो, कहाँ कुछ भी अगम्य है। [१२] <br><br>
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::स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।<br>::ध्याननिर्मथनाभ्यासादेवं पश्यन्निगूढवत्॥१४॥<br>
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::जब दो अरणियों का हो मंथन, अग्नि तब ही प्रगट हो,<br>::स्व देह अर्णिम, प्रणव अर्णिम, से ही परब्रह्म निकट हों। <br>::ओमकार का जप, ध्यान द्वारा, यदि निरंतर जाप हो,<br>::तब काष्ठ निहित अग्नि सम ही, प्रगट प्रभुवर आप हों। [१४] <br><br>
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::सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्।<br>::आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत् परम्॥१६॥<br><br>
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::ज्यों दूध में स्थित है घी, सर्वत्र है परिपूर्ण है,<br>::त्यों पूर्ण प्रभु परमेश जग में व्याप्त है सम्पूर्ण है।<br>::वह आत्म विद्या और तप, साधन से ही प्राप्तव्य है,<br>::परब्रह्म तत्व परम प्रभो, उपनिषदों से ज्ञातव्य है। [१६] <br><br>
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