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::तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति॥२॥<br>
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::मिथ्याभिमानी देवताओं से, दयानिधि विज्ञ थे।<br>::भक्त वत्सल भक्त वत्सलता से भी तो कृतज्ञ थे॥<br>::हित दर्प नाश को, दिव्य यक्ष के रूप में प्रभु आ गए। <br>::लख दिव्य रूप विराट अद्भुत देवता चकरा गए॥ [ २ ]<br><br>
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::तदभ्यद्रवत्तमभ्य वदत्कोऽसीत्यग्निर्वा ।<br>::अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥४॥<br>
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::अति दिव्य यक्ष का अग्नि देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?<br>::हे! अहम मन्यक देवता क्या तुम ही सार्वभौम हो ?<br>::"मैं तेज पुंज स्वरूप हूँ", प्रसिद्ध अग्नि हूँ अति महे।<br>::तुम कौन जो जाना नहीं, मुझे जातवेदा सब कहें॥ [ ४ ]<br><br>
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::तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक ।<br>::दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥६॥<br>
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::रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने अग्नि देव के सामने।<br>::करो भस्म तो जानूँ भला, अग्नित्व कितना आपमें॥<br>::पूर्ण दाहक शक्ति व्यर्थ थी, मौन हतप्रभ आ गए।<br>::यह दिव्य यक्ष महामहिम, अनभिज्ञ हम चकरा गए॥ [ ६ ] <br><br>
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::तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा ।<br>::अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥<br>
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::अति दिव्य यक्ष का वायु देव से प्रश्न था तुम कौन हो ? <br>::हे! अहम् मन्यक वायु देव क्या तुम ही सार्वभौम हो ?<br>::उत्तर दिया तब वायु ने, गुण गर्व गौरव दर्प से।<br>::मातरिश्रिवा हूँ प्रसिद्ध वायु, सृष्टि मम संसर्ग से॥ [ ८ ] <br><br>
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::तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न ।<br>::शशाकादतुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥१०॥<br>
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::रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने वायु देव के सामने।<br>::इसको उड़ा दो जानूँ, कितना वायु तत्व है आपमें॥<br>::शक्ति प्रभु ने रोकी तो फिर, वायु तत्व का अर्थ क्या ?<br>::लज्जित हो लौटे, दिव्य यक्ष के ज्ञान की सामर्थ्य क्या ? [ १० ] <br><br>
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::स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ ।<br>::हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥१२॥<br>
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::फिर यक्ष के स्थान पर ही, इन्द्र स्थित रह गए।<br>::उमा रूपा ब्रह्म विद्या को देख हतप्रभ रह गए॥<br>::सर्वज्ञ ज्ञाता उमा रूपा, मर्म यक्ष का आप ही।<br>::कुछ कहें सादर विनत हूँ, सर्वज्ञ आपसा है नहीं॥ [ १२ ] <br><br>
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