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* [[सनसनाता आता है झूठा सच / ओम भारती]]
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{{KKRachna
|रचनाकार=ओम भारती
}}
अंग्रेजी अख़बारों को पलटते पाता हूँ<br>
नहीं रहा क्राँति पर<br>
वाम का एकाधिकार<br>
क्राँति, बल्कि क्रान्तियाँ तो पूँजी कर रही है<br>
देस-विदेसी, हमारे बाज़ार में<br>
प्रसार माध्यमों के मुताबिक<br>
रक्तहीन, फर्स्ट क्लास फन हैं ये क्राँतियाँ<br>
फुल ऑफ वेरायटीज<br>
विविधता से भरा प्रथम श्रेणी का आनन्द<br><br>
छपा है विज्ञापन<br>
द ग्रेटेस्ट वार बीइंग वेज्ड टुडे<br>
इज़ इन इन्डियाज़ मार्केट-प्लेस<br><br>
भारत के हाटों में<br>
शुरू हो चुकी है, हाँ<br>
दुनिया की सबसे जबर्दस्त जंग<br>
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मिलाजुला प्रायोजन<br>
मिलीजुली भव्य और मारक लड़ाई<br>
अनेक मोर्चे खुले हैं एक साथ<br>
अनेक किस्में हैं युद्ध की, अनेक नाम<br>
द कोला वार<br>
द स्नेक्स वार<br>
द फास्ट फूड वार<br>
द कम्प्यूटर्स वार<br>
द फैब्रिक्स वार<br>
द ... वार<br>
... वार<br>
... वार<br>
और वह इश्तिहार<br>
इसमें यह हिटलर की तस्वीर<br>
कैप्शन कहता है - 'द वार ही मिस्ड'<br><br>
कितना मुलायम अफसोस है<br>
कि चूक गया इस युद्ध को देखने से हिटलर<br>
देखता तो उसको भी पसीना आ जाता<br>
उसने क्या सोचे होंगे<br>
कभी ये महासमर, भीषण बाज़ार-युद्ध<br>
मार्केट वॉर्स ये<br>
वार्स दैट हेव आल द ब्रिलिएन्स<br>
ये चमकदार भिड़ंतें - स्विफ्ट एंड रूथलेस<br>
तेज और निर्मम ये बैटल्स<br>
बैटल्स फॉट विथ ब्रान्ड्स<br>
बिकाऊ नामों की मोहक मुठभेड़ें<br>
पिछड़े व फटेहाल मुल्कों में<br>
चलता यह घनघोर घमासान<br>
आइन्सटीन को क्या पता था<br>
कि तीसरा विश्व-युद्ध<br>
यूँ लड़ा जाएगा तीसरे विश्व में<br>
वह तीसरे को तज सीधे चौथे के<br>
फोर्थ ग्रेट वार के बारे में बोला था<br><br>
युद्ध, युद्ध, युद्ध<br>
इन तमाम युद्धों का लक्ष्य<br>
सिर्फ हम हैं<br>
सिर्फ हम लहू-लुहान<br>
नष्ट या नेस्तनाबूद होंगे<br>
तो हम होंगे<br>
छेड़े गए हैं ये हमारे ख़िलाफ ही<br>
चलाए गए हैं ये पूँजी के जोर पर<br>
सहारे पूँजी के, पूँजी के वास्ते<br>
मुनाफाखोरों की एलाइड फोर्सेस<br>
उतारू हैं दोस्तो मिटाने पे हमको<br>
आदमी से कंज्यूमर में घटाने पे हमको<br>
इस तरह तो वे हमें ही<br>
कंज्यूम कर लेंगे<br>
नष्ट कर डालेंगे हमारे जीवन को<br>
रोचक नहीं लोमहर्षक है दोस्तो<br>
भयानक है यह सच, बेहद भयानक<br>
बहुत सुविचारित है अभियान उनका<br>
बर्लिन की दीवार गिरने के बाद से<br>
नया जोश, नयी धार<br>
नयी तुरुप, नयी चाल<br>
उष्ण को जगह देने खत्म हुआ शीत-युद्ध<br>
और थैंक्स टु पेरेस्त्रोइका<br>
अखबारों में छप रहा है लेनिन का बस्ट<br>
उठे हाथ वाला - <br>
उप-भोक्ताओं का आह्वान करता हुआ<br>
'कंज्यूमर्स ऑफ द वर्ल्ड, राइज!'<br><br>
जागो उपभोक्ताओ सारे संसार के<br>
प्रतिपल जब कीमतें उठ रही हैं<br>
तुम भी उठो उन तक<br>
उठो रे मरे कंज्यूमरो<br>
उठो, द वे द जेप्स डू<br>
हाँ जापानी तर्ज़ पर उठो तुम<br>
उठो उपभोक्ताओं, असली भोक्ताओं को<br>
पूँजी के पारम्परिक प्रभुओं को चरण चूम<br>
क्लैसिकल 'विश' करो, गिड़गिड़ाओ -<br>
मास्टर, मास्टर<br>
स्पेशली फॉर यू माई मास्टर<br>
खास आप ही के लिए<br>
हम जीते-मरते हैं<br>
जब तक क्रय शक्ति है खरीदते हैं<br>
खरीदते हैं, जीते हैं<br>
गाँठ में नहीं होता दाम तो मरते हैं<br>
या दम, आपके काम आते रहने का<br>
जब अगली साँस खरीदने को नहीं होती<br>
मुद्रा, तो मरते हैं<br>
मरते हैं फॉर यू मास्टर<br><br>
आर्थिक अश्वमेध का घोड़ा अविजित<br>
बदल चुका समूचा ही देश मानो हाट में<br>
तमाम हाट हुए मैदान युद्ध के<br>
चप्पे-चप्पे पर तैनात हुए<br>
आधुनिकतम सेल्स-फोर्स<br>
मुस्तैद 'मित्रों' के<br>
मिलिटेन्ट मार्केटिंग जनरल्स<br>
सूचना-क्राँति के प्रणेता प्रचार-प्रभु<br>
प्रोपेगेंडा मास्टर्स<br>
संभाले हुए अपने मीडिया की कमान<br>
हाथों में करोड़ों का रिमोट कंट्रोल<br>
करोड़ों के जीवन की अदृश्य बागडोर<br>
सम्मोहन कई करोड़ भारतीय आँखों का<br>
पुराणों से पिटी हुई<br>
सदियों से सूजी हुई<br>
हिन्दुस्तानी आँख के लिए हाज़िर<br>
उच्च तकनीक का जादुई स्पर्श अब<br>
हीलिंग टच<br>
हाई टेक्नालॉजी का<br><br>
ठगे जा रहे हैं हम दरअसल खुलेआम<br>
उन्होंने हमारी नज़र बाँध ली है इस तरह<br>
काबू कर लिया हमारे हाइपोथेल्मस पर<br>
लगाम लगा डाली हमारी अक्ल को<br>
मार दीं सारी संवेदनाएँ, मर गईं<br>
कि चढ़ गईं जेहन में जरूरतें<br>
देखते भी नहीं हम आज अपना आसपास<br>
पुरा-पड़ोस-बस्ती पर किसी का ध्यान नहीं<br>
ग्रहण कर रहे हैं संकेत सभी आजकल<br>
दूर अंतरिक्ष से<br>
कोई नहीं सुनता है अंतस की आवाज<br>
प्री रेकार्डेड कैसेट-सा बजते हैं हम लोग<br>
बोलते हैं बरजोर बोल तक उन्ही के<br>
हिन्दी का कवि मैं<br>
पर, लिख रहा हूँ<br>
ब्रेकफास्ट टी.वी. की दोयम जुबान में<br>
भाषा व संस्कृति के दुर्गों पर<br>
इस कदर हुए हैं धनतंत्री हमले<br><br>
फिरंगी सरकार नहीं है तो क्या हुआ<br>
राज अब भी चलता है उसकी जुबान में<br>
बाजार-युद्ध में भी वही है अग्रणी<br>
पिट गई है हिन्दी अपने मुहावरे में<br>
हिन्दी की पत्रिकाएँ बंद होती जाती हैं<br>
फी पेज तय कालम कचरे की दर से<br>
रंगीन पृष्ठों की रंगदार अंगरेजी<br>
ढोने को विवश हुआ करता है पाठक<br>
या फिर एक अजनबी अटपटी आधुनिक<br>
अनुवादित हिन्दी <br>
और हम जनतंत्री खुली आँख सोते हैं<br>
आधे अंग्रेजों को सल्तनत बख्श कर<br><br>
फ्री इकॉनामी का इंद्रजाल जारी है<br>
काठ मार गया जैसे हम सबकी समझ को<br>
उनके इस सुनियोजित आक्रमण के आगे<br>
आत्मघाती आकर्षण-व्यूह में निहत्थी-सी<br>
छोड़ दीं हैं हमने अपनी आगामी पीढ़ियाँ<br>
जड़ें उन्हे देना तो दूर रहा<br>
हम उनको एकदम जड़ बना रहे हैं<br>
इस ट्रेजिक दौर में उन्हे केवल<br>
कलरफुल कॉमिक्स<br>
दिखा-पढ़ा रहे हैं<br>
धरती पर पाँव जमाना तो नहीं सिखलाया<br>
मगर उन्हे सीधे आसमान चढ़ा रहे हैं<br>
सुपरमैन, स्पाइडरमैन या रैम्बो की <br>
फैन हैं ये<br>
हमारी औलादें<br>
(ओह सॉरी, हमारे वार्ड या प्रोजिनी!)<br><br>
पर्दे पर देखा है उनने तो<br>
दोस्ती का घातक आलिंगन<br>
द फैटल एम्ब्रेस ऑफ फ्रेंडशिप<br>
दोस्तों का एतबार नहीं रहा<br>
स्ट्रीट-हॉक ने क्या-कुछ सिखाया उन्हे<br>
वीडियो-गेम्स जो चल रहा है खतरनाक<br>
गिरफ्त में जिसके है वर्तमान-भविष्य<br>
दूर-भविष्य धुँधला है<br>
प्राफिट की दौड़ में<br>
वैल्यूज चीजें हैं पास्ट की, भूल जाओ<br>
प्राइस अब हो गई हैं खास बात, याद रखो<br>
कीमतें बढ़ती हैं, मूल्य गिर जाते हैं<br>
भावों के उठने से, भाव दब जाते हैं<br>
सब तरफ से झूठा सच दनदनाते आता है<br>
सनसनाती आती है नयी विश्व-व्यवस्था<br><br>
कहाँ हो कवि मित्रो, निकल आओ घरों से<br>
सामना करना होगा समय का साहस से<br>
'पूँजीवादी झूठ के विराट अत्याचार बीच'<br>
अपने ही शिविर में मार डाला जाएगा<br>
वंचितों का स्वप्न, जरा-सी भी चूक से<br>
::::::1991, जबलपुर
* [[सनसनाता आता है झूठा सच / ओम भारती]]
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{{KKRachna
|रचनाकार=ओम भारती
}}
अंग्रेजी अख़बारों को पलटते पाता हूँ<br>
नहीं रहा क्राँति पर<br>
वाम का एकाधिकार<br>
क्राँति, बल्कि क्रान्तियाँ तो पूँजी कर रही है<br>
देस-विदेसी, हमारे बाज़ार में<br>
प्रसार माध्यमों के मुताबिक<br>
रक्तहीन, फर्स्ट क्लास फन हैं ये क्राँतियाँ<br>
फुल ऑफ वेरायटीज<br>
विविधता से भरा प्रथम श्रेणी का आनन्द<br><br>
छपा है विज्ञापन<br>
द ग्रेटेस्ट वार बीइंग वेज्ड टुडे<br>
इज़ इन इन्डियाज़ मार्केट-प्लेस<br><br>
भारत के हाटों में<br>
शुरू हो चुकी है, हाँ<br>
दुनिया की सबसे जबर्दस्त जंग<br>
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मिलाजुला प्रायोजन<br>
मिलीजुली भव्य और मारक लड़ाई<br>
अनेक मोर्चे खुले हैं एक साथ<br>
अनेक किस्में हैं युद्ध की, अनेक नाम<br>
द कोला वार<br>
द स्नेक्स वार<br>
द फास्ट फूड वार<br>
द कम्प्यूटर्स वार<br>
द फैब्रिक्स वार<br>
द ... वार<br>
... वार<br>
... वार<br>
और वह इश्तिहार<br>
इसमें यह हिटलर की तस्वीर<br>
कैप्शन कहता है - 'द वार ही मिस्ड'<br><br>
कितना मुलायम अफसोस है<br>
कि चूक गया इस युद्ध को देखने से हिटलर<br>
देखता तो उसको भी पसीना आ जाता<br>
उसने क्या सोचे होंगे<br>
कभी ये महासमर, भीषण बाज़ार-युद्ध<br>
मार्केट वॉर्स ये<br>
वार्स दैट हेव आल द ब्रिलिएन्स<br>
ये चमकदार भिड़ंतें - स्विफ्ट एंड रूथलेस<br>
तेज और निर्मम ये बैटल्स<br>
बैटल्स फॉट विथ ब्रान्ड्स<br>
बिकाऊ नामों की मोहक मुठभेड़ें<br>
पिछड़े व फटेहाल मुल्कों में<br>
चलता यह घनघोर घमासान<br>
आइन्सटीन को क्या पता था<br>
कि तीसरा विश्व-युद्ध<br>
यूँ लड़ा जाएगा तीसरे विश्व में<br>
वह तीसरे को तज सीधे चौथे के<br>
फोर्थ ग्रेट वार के बारे में बोला था<br><br>
युद्ध, युद्ध, युद्ध<br>
इन तमाम युद्धों का लक्ष्य<br>
सिर्फ हम हैं<br>
सिर्फ हम लहू-लुहान<br>
नष्ट या नेस्तनाबूद होंगे<br>
तो हम होंगे<br>
छेड़े गए हैं ये हमारे ख़िलाफ ही<br>
चलाए गए हैं ये पूँजी के जोर पर<br>
सहारे पूँजी के, पूँजी के वास्ते<br>
मुनाफाखोरों की एलाइड फोर्सेस<br>
उतारू हैं दोस्तो मिटाने पे हमको<br>
आदमी से कंज्यूमर में घटाने पे हमको<br>
इस तरह तो वे हमें ही<br>
कंज्यूम कर लेंगे<br>
नष्ट कर डालेंगे हमारे जीवन को<br>
रोचक नहीं लोमहर्षक है दोस्तो<br>
भयानक है यह सच, बेहद भयानक<br>
बहुत सुविचारित है अभियान उनका<br>
बर्लिन की दीवार गिरने के बाद से<br>
नया जोश, नयी धार<br>
नयी तुरुप, नयी चाल<br>
उष्ण को जगह देने खत्म हुआ शीत-युद्ध<br>
और थैंक्स टु पेरेस्त्रोइका<br>
अखबारों में छप रहा है लेनिन का बस्ट<br>
उठे हाथ वाला - <br>
उप-भोक्ताओं का आह्वान करता हुआ<br>
'कंज्यूमर्स ऑफ द वर्ल्ड, राइज!'<br><br>
जागो उपभोक्ताओ सारे संसार के<br>
प्रतिपल जब कीमतें उठ रही हैं<br>
तुम भी उठो उन तक<br>
उठो रे मरे कंज्यूमरो<br>
उठो, द वे द जेप्स डू<br>
हाँ जापानी तर्ज़ पर उठो तुम<br>
उठो उपभोक्ताओं, असली भोक्ताओं को<br>
पूँजी के पारम्परिक प्रभुओं को चरण चूम<br>
क्लैसिकल 'विश' करो, गिड़गिड़ाओ -<br>
मास्टर, मास्टर<br>
स्पेशली फॉर यू माई मास्टर<br>
खास आप ही के लिए<br>
हम जीते-मरते हैं<br>
जब तक क्रय शक्ति है खरीदते हैं<br>
खरीदते हैं, जीते हैं<br>
गाँठ में नहीं होता दाम तो मरते हैं<br>
या दम, आपके काम आते रहने का<br>
जब अगली साँस खरीदने को नहीं होती<br>
मुद्रा, तो मरते हैं<br>
मरते हैं फॉर यू मास्टर<br><br>
आर्थिक अश्वमेध का घोड़ा अविजित<br>
बदल चुका समूचा ही देश मानो हाट में<br>
तमाम हाट हुए मैदान युद्ध के<br>
चप्पे-चप्पे पर तैनात हुए<br>
आधुनिकतम सेल्स-फोर्स<br>
मुस्तैद 'मित्रों' के<br>
मिलिटेन्ट मार्केटिंग जनरल्स<br>
सूचना-क्राँति के प्रणेता प्रचार-प्रभु<br>
प्रोपेगेंडा मास्टर्स<br>
संभाले हुए अपने मीडिया की कमान<br>
हाथों में करोड़ों का रिमोट कंट्रोल<br>
करोड़ों के जीवन की अदृश्य बागडोर<br>
सम्मोहन कई करोड़ भारतीय आँखों का<br>
पुराणों से पिटी हुई<br>
सदियों से सूजी हुई<br>
हिन्दुस्तानी आँख के लिए हाज़िर<br>
उच्च तकनीक का जादुई स्पर्श अब<br>
हीलिंग टच<br>
हाई टेक्नालॉजी का<br><br>
ठगे जा रहे हैं हम दरअसल खुलेआम<br>
उन्होंने हमारी नज़र बाँध ली है इस तरह<br>
काबू कर लिया हमारे हाइपोथेल्मस पर<br>
लगाम लगा डाली हमारी अक्ल को<br>
मार दीं सारी संवेदनाएँ, मर गईं<br>
कि चढ़ गईं जेहन में जरूरतें<br>
देखते भी नहीं हम आज अपना आसपास<br>
पुरा-पड़ोस-बस्ती पर किसी का ध्यान नहीं<br>
ग्रहण कर रहे हैं संकेत सभी आजकल<br>
दूर अंतरिक्ष से<br>
कोई नहीं सुनता है अंतस की आवाज<br>
प्री रेकार्डेड कैसेट-सा बजते हैं हम लोग<br>
बोलते हैं बरजोर बोल तक उन्ही के<br>
हिन्दी का कवि मैं<br>
पर, लिख रहा हूँ<br>
ब्रेकफास्ट टी.वी. की दोयम जुबान में<br>
भाषा व संस्कृति के दुर्गों पर<br>
इस कदर हुए हैं धनतंत्री हमले<br><br>
फिरंगी सरकार नहीं है तो क्या हुआ<br>
राज अब भी चलता है उसकी जुबान में<br>
बाजार-युद्ध में भी वही है अग्रणी<br>
पिट गई है हिन्दी अपने मुहावरे में<br>
हिन्दी की पत्रिकाएँ बंद होती जाती हैं<br>
फी पेज तय कालम कचरे की दर से<br>
रंगीन पृष्ठों की रंगदार अंगरेजी<br>
ढोने को विवश हुआ करता है पाठक<br>
या फिर एक अजनबी अटपटी आधुनिक<br>
अनुवादित हिन्दी <br>
और हम जनतंत्री खुली आँख सोते हैं<br>
आधे अंग्रेजों को सल्तनत बख्श कर<br><br>
फ्री इकॉनामी का इंद्रजाल जारी है<br>
काठ मार गया जैसे हम सबकी समझ को<br>
उनके इस सुनियोजित आक्रमण के आगे<br>
आत्मघाती आकर्षण-व्यूह में निहत्थी-सी<br>
छोड़ दीं हैं हमने अपनी आगामी पीढ़ियाँ<br>
जड़ें उन्हे देना तो दूर रहा<br>
हम उनको एकदम जड़ बना रहे हैं<br>
इस ट्रेजिक दौर में उन्हे केवल<br>
कलरफुल कॉमिक्स<br>
दिखा-पढ़ा रहे हैं<br>
धरती पर पाँव जमाना तो नहीं सिखलाया<br>
मगर उन्हे सीधे आसमान चढ़ा रहे हैं<br>
सुपरमैन, स्पाइडरमैन या रैम्बो की <br>
फैन हैं ये<br>
हमारी औलादें<br>
(ओह सॉरी, हमारे वार्ड या प्रोजिनी!)<br><br>
पर्दे पर देखा है उनने तो<br>
दोस्ती का घातक आलिंगन<br>
द फैटल एम्ब्रेस ऑफ फ्रेंडशिप<br>
दोस्तों का एतबार नहीं रहा<br>
स्ट्रीट-हॉक ने क्या-कुछ सिखाया उन्हे<br>
वीडियो-गेम्स जो चल रहा है खतरनाक<br>
गिरफ्त में जिसके है वर्तमान-भविष्य<br>
दूर-भविष्य धुँधला है<br>
प्राफिट की दौड़ में<br>
वैल्यूज चीजें हैं पास्ट की, भूल जाओ<br>
प्राइस अब हो गई हैं खास बात, याद रखो<br>
कीमतें बढ़ती हैं, मूल्य गिर जाते हैं<br>
भावों के उठने से, भाव दब जाते हैं<br>
सब तरफ से झूठा सच दनदनाते आता है<br>
सनसनाती आती है नयी विश्व-व्यवस्था<br><br>
कहाँ हो कवि मित्रो, निकल आओ घरों से<br>
सामना करना होगा समय का साहस से<br>
'पूँजीवादी झूठ के विराट अत्याचार बीच'<br>
अपने ही शिविर में मार डाला जाएगा<br>
वंचितों का स्वप्न, जरा-सी भी चूक से<br>
::::::1991, जबलपुर