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यों की 'पालागी' —
कण्ठ में ज्ञान संवेदन के,
 
आंसू का कांटा फंसा और
 
मन में यह आसमान छाया,
 
जिस में जन-जन के घर-आंगन
का सूरज भासमान छाया
चिड़िया डोली,
फर-फर आंचल तुमको निहार
 
मानो कि मातृ-भाषा बोली —
 
जिनसे गूंजा घर-आंगन
 
खनके मानों बहुओं की चूड़ी के कंगन ।
 
मैं जिस दुनिया में आज बसा,
 
जन-संघर्षों की राहों पर
ज्वालाओं से
माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा ।
 
इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के
घर-घर के भूखे प्राण हँसे ।
लेकिन यह मेरे छन्द
बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर,
 
बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर,
ऐसी पावन धूल हुए —
बहना के हिय की तुलसी पर
 
घन छाया कर
मंजरी हुए,
भाई के दिल में फूल हुए ।
 
अपने समुंदरों के विभोर
 
मस्ती के शब्दों में गम्भीर
 
तब मेरा हिन्दुस्तान हँसा ।
 
जन-संघर्षों की राहों पर
 
आंगन के नीमों ने मंजरियाँ बरसायीं ।
 
अम्बर में चमक रही बहन-बिजली ने भी
थी ताकत हिय में सरसायी ।
घर-घर के सजल अंधेरे से
 
मेघों ने कुछ उपदेश लिए,
 
जीवन की नसीहतें पायीं ।
 
जन-संघर्षों की राहों पर
गम्भीर घटाओं ने
युग जीवन सरसाया ।
आंसू से भरा हुआ चुम्बन मुझपर बरसाया ।
 
ज़िंदगी नशा बन घुमड़ी है
 
ज़िंगगी नशे सी छायी है
 
नव-वधुका बन
यह बुद्धिमती
ऐसी तेरे घर आयी है ।
 
रे, स्वयं अगरबत्ती से जल,
जिन लोगों ने
अपने अंतर में घिरे हुए
 
गहरी ममता के अगुरू-धूम
के बादल सी
वह हुलसी, वह अकुलायी
इस हृदय-दान की वेला में मेरे भीतर ।
 
जिनके स्वभाव के गंगाजल ने,
युगों-युगों को तारा है,
जिनके कारण यह हिन्दुस्तान हमारा है,
 
कल्याण व्यथाओं मे घुलकर
 
जिन लाखों हाथों-पैरों ने यह दुनिया
पार लगायी है,
सौ-सौ जीवन,
उन जन-जन का दुर्दान्त रुधिर
 
मेरे भीतर, मेरे भीतर ।
 
उनकी बाहों को अपने उर पर
धारण कर वरमाला-सी
उनकी हिम्मत, उनका धीरज,
 
उनकी ताकत
 
पायी मैंने अपने भीतर ।
 
कल्याणमयी करुणाओं के
 
वे सौ-सौ जीवन-चित्र लिखे
 
मेरे हिय में जाने किसने, जाने कैस
 
उनकी उस सहजोत्सर्गमयी
 
आत्मा के कोमल पंख फँसे
 
मेरे हिय में,
 
मँडराता है मेरा जी चारों ओर सदा
उनके ही तो ।
यादें उनकी
 
कैसी-कैसी बातें लेकर,
 
जीवन के जाने कितने ही रुधिराक्त प्राण
 
दुःखान्त साँझ
 
दुर्दान्त भव्य रातें लेकर
 
यादें उनकी
 
मेरे मन में
 
ऐसी घुमड़ी
 
ऐसी घुमड़ी
 
मानो कि गीत के
किसी विलम्बित सुर में —
बेर-अबेर खिली,
क्रान्ति की मुस्कराती आँखों —
 
पर, लहराती अलकों में बिंध,
 
आंगन की लाल कन्हेर खिली ।
 
भूखे चूल्हे के भोले अंगारों में रम,
 
जनपथ पर मरे शहीदों के
 
अन्तिम शब्दों बिलम-बिलम,
 
लेखक की दुर्दम कलम चली ।
 
दुबली चम्पा
जन संघर्षों में
गदरायी,
खण्डर-मकान में फूल खिले, तल में बिखरे
 
जीवन संघर्षों में घुमड़े
उमड़े चक्की के गीतों में
कल्याणमयी करुणाओं के
 
हिन्दुस्तानी सपने निखरे —
 
जिस सुर को सुन
 
कूएँ की सजल मुँडेर हिली
 
प्रातः कालीन हवाओं में ।
सूरज का लाल-लाल चेहरा
डोला धरती की बाहों में,
 
आसक्ति भरा रवि का मुख वह ।
 
उसकी मेधाओं की ज्वालाएँ ऐसी फैलीं —
 
उस घास-भरे जंगल-पहाड़-बंजर में
यों दावाग्नि लगी
मानो बूढ़ी दुनिया के सिर पर आग लगी
 
सिर जलता है, कन्धे जलते ।
 
यह अग्नि-विश्वजित् फैली है जिन लोगों की
रे नौजवान,
इतिहास बनानेवाला सिर करके ऊंचा
 
भौहों पर मेघों-जैसा
विद्युत भार
विचारों का लेकर
पृथ्वी की गति के साथ-साथ घूमते हुए
 
वे दिशा-काल वन वातावरण-पटल जैसे
 
चलते जन-जन के साथ
 
वे हैं आगे वे हैं पीछे ।
अगजाजी खोहों और खदानों के
 
तल में
ज्यों रत्न-द्वीप जलते
त्यों जन-जन के अनपहचाने अन्तस्तल में
 
जीवन के सत्य-दीप पलते !!
 
दावाग्नि-लगे, जंगल के बीचों-बीच बहे
 
मानो जीवन सरिता
जलते कूलोंवाली,
इस कष्ट भरे जीवन के विस्तारों में त्यों
 
बहती है तरुणों आत्मा प्रतिभाशाली
क्रमशः...
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