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:परिणत होते नूतन मन का ।
::वह अन्तस्तल . . . . . .
संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा
अनुभव-गरिमाओं की आभा वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा सौ सहानुभूतियों की गरमी, प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है, मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !! उस स्वर्ण-सरोवर का जल:चमक रहा देखोउस दूर क्षितिज-रेखा पर वह झिलमिला रहा ।  ताना-बाना:मानव दिगंत किरनों का:मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचानाउस दिन, उस क्षण नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा:मेरे आंगन,प्रतिपल अधिकाधिक उज्ज्वल हो:मधुशील चन्द्र::था प्रस्तुत योंमेरे सम्मुख आया मानो मेरा ही मन । वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में — जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने, तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं, मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में है फैल चली मेरी दुनिया की:या कि तुम्हारी ही झाँईं ।तुम क्या जानो मुझको कितना::अभिमान हुआसन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर, जब भव्य तुम्हारा संवेदन सबके सम्मुख रख सका, तभी अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा::झलमला उठी !!  ईमानदार संस्कार-मयी सन्तुलित नयी गहरी चेतना :अभय होकर अपनेवास्तविक मूलगामी निष्कर्षों तक पहुँची ऐसे निष्कर्ष कि जिनके अनुभव-अस्त्रों से वैज्ञानिक मानव-शस्त्रों से मेरे सहचर हैं ढहा रहे वीरान विरोधी दुर्गों की अखण्ड सत्ता । उनके अभ्यन्तर के प्रकाश की कीर्तिकथा जब मेरे भीतर मंडरायी मेरी अखबार-नवीसी ने सौ-सौ आंखें पायीं ।  कागज़ की भूरी छाती पर:नीली स्याही के अक्षर में था प्रकट हुआ छप्पर के छेदों से सहसा झाँका वह नीला आसमान वह आसमान जिसमें ज्योतिर्मय:कमल खिला::रवि का ।शब्दों-शब्दों में वाक्यों में मानवी-अभिप्रायों का सूरज निकला:उसकी विश्वाकुल एक किरन::तुम भी तो हो,धरती के जी को अकुलानेवाली:छवि-मधुरा कविता की:प्यारी-प्यारी सी एक कहन:तुम भी तो हो,वीरान में टूटे विशाल पुल के एक खण्डहर में उगे आक के फूलों के नीले तारे, मधु-गन्ध भरी उद्दाम हरी:चम्पा के साथ::उगे प्यारे,मानो जहरीले अनुभव में मानव-भावों के अमृतमय:शत-प्रतिभाओं के अंगारे,उनकी दुर्दान्त पराकाष्ठा:की एक किरन:तुम भी तो हो !!अपने संघर्षों के कडुए:अनुभव की::छाती के भीतर   क्रमशः...
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