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{{KKRachna
|रचनाकार=शरद बिलौरे
|संग्रह=तय तो यही हुआ था / शरद बिलौरे
}}
<Poem>
मेरी कहानी
उस संगमरमरी पत्थर की कहानी है
लोग ख़ूबसूरत कहने के बावजूद
जिसे पत्थर कहते हैं।
उस काली चट्टान की कहानी है
सख़्त होने के बावजूद
कोमल पौधे
जिसके सीने पर अपनी जड़ें जमाए रहते हैं।
जब मैं पैदा हुआ
अपनी कोमल-कोमल गुलाबी हथेलियों में
दो मुट्ठी धूप नार कर बड़ा हो गया
मैंने अपने सीने पर फसलें उगाईं
भावनाओं के जल से उन्हें सींचा
और पकती बालियों को देख-देख
भविष्य का नक्शा खींचा।
लेकिन
जब कभी
फसल काटने की कोशिश की
दानों को
अपने से एक युग आगे बढ़ा पाया।
फिर भी मैं
समय से एक-एक टुकड़ा
उधार लेकर बोता रहा
और उस एक युग अंतर को
निरन्तर कम करने का प्रयास करता रहा।
लेकिन इस बार,
इस बार दानें तो एक युग आगे हैं ही
ज़मीन भी बहुत आगे सरक गई है
युगों और शताब्दियों आगे
उसके सीने में पड़ी
वे सारी दरारें नार गई हैं
जिन्हें मैं नहीं नार सका था
मैं ज़िन्दगी की खाई के इस किनारे खड़ा
उस किनारे पर
उसे मुस्कुराता देख रहा हूँ
दूर...
शायद मेरे अंतर्मन से
ये आवाज़-सी आ रही थी
ज़मीन तो उसी की होती है
जो फसल काट लेते हैं
और इस युग में फसल
बोये बिना काट ली जाती है।
अचानक
मैं पीछे हटता गया
युगों और शताब्दियो पीछे
मेरे हाथ छोटे होने लगे
रंग गुलाबी होने लगा
और एक बार फिर से
गुलाबी हथेलियों में
दो मुट्ठी धूप भर कर खड़ा हूँ
एक बार फिर से बड़ा होने की उम्मीद में।
ताकि मैं भी
बिना बोये
किसी की फसल काट सकूँ
और अभी तक चढ़ा हुआ
समय का कर्ज़ उतार दूँ।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=शरद बिलौरे
|संग्रह=तय तो यही हुआ था / शरद बिलौरे
}}
<Poem>
मेरी कहानी
उस संगमरमरी पत्थर की कहानी है
लोग ख़ूबसूरत कहने के बावजूद
जिसे पत्थर कहते हैं।
उस काली चट्टान की कहानी है
सख़्त होने के बावजूद
कोमल पौधे
जिसके सीने पर अपनी जड़ें जमाए रहते हैं।
जब मैं पैदा हुआ
अपनी कोमल-कोमल गुलाबी हथेलियों में
दो मुट्ठी धूप नार कर बड़ा हो गया
मैंने अपने सीने पर फसलें उगाईं
भावनाओं के जल से उन्हें सींचा
और पकती बालियों को देख-देख
भविष्य का नक्शा खींचा।
लेकिन
जब कभी
फसल काटने की कोशिश की
दानों को
अपने से एक युग आगे बढ़ा पाया।
फिर भी मैं
समय से एक-एक टुकड़ा
उधार लेकर बोता रहा
और उस एक युग अंतर को
निरन्तर कम करने का प्रयास करता रहा।
लेकिन इस बार,
इस बार दानें तो एक युग आगे हैं ही
ज़मीन भी बहुत आगे सरक गई है
युगों और शताब्दियों आगे
उसके सीने में पड़ी
वे सारी दरारें नार गई हैं
जिन्हें मैं नहीं नार सका था
मैं ज़िन्दगी की खाई के इस किनारे खड़ा
उस किनारे पर
उसे मुस्कुराता देख रहा हूँ
दूर...
शायद मेरे अंतर्मन से
ये आवाज़-सी आ रही थी
ज़मीन तो उसी की होती है
जो फसल काट लेते हैं
और इस युग में फसल
बोये बिना काट ली जाती है।
अचानक
मैं पीछे हटता गया
युगों और शताब्दियो पीछे
मेरे हाथ छोटे होने लगे
रंग गुलाबी होने लगा
और एक बार फिर से
गुलाबी हथेलियों में
दो मुट्ठी धूप भर कर खड़ा हूँ
एक बार फिर से बड़ा होने की उम्मीद में।
ताकि मैं भी
बिना बोये
किसी की फसल काट सकूँ
और अभी तक चढ़ा हुआ
समय का कर्ज़ उतार दूँ।
</poem>