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<Poem>
प्रात होते –
 
सबल पंखों की मीठी एक चोट से
 
अनुगता मुझ को बना कर बावली को –
 
जान कर मैं अनुगता हूँ –
 
उस विदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी
 
श्रुता (?) हूँ –
 
उड़ गया वह पंछी बावला
 
पंछी सुनहला
 
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को :
 
प्रात होते
 
वही जो
 
थके पंखों को समेटे –
 
आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे –
 
चञ्चु की उन्मुख विकलता के सहारे
 
नम रही ग्रीवा उठाये –
 
सिहरता-सा, काँपता-सा,
 
नीड़ की-नीड़स्थ की सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,
 
निकट अपनों के निकटतर भवितव्य की अपनी प्रतीज्ञा के
 
निकटतम इस वि-बुध सपनों की सखी के
 
आ गया था
 
आ गया था
 
रात होते ?
</poem>
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