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|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
|संगहसंग्रह=घर एक यात्रा / श्रीनिवास श्रीकांत
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(मित्रों से क्षमा सहित)
मित्रो, मैं मर जाऊँ
मत पीटना पीछे से लाठियाँ
वर्ना होगा यह सिद्घ
मैं था ज़हरीला साँप
मित्रो, तुम्हें नहीं मालूम कि साँप
होता है कितना निष्कपट
रहता है जमीन के नीचे
गैर-मौसम में शीतनिद्रित
साँप नहीं डँसता
कभी दूसरे साँपों को
भाँप लेता है
कि उनमें भी है कितना ज़हर
एक दिन वे भी होंगे
नाग-थकान से पस्त
इसलिये मित्रो
यदि मैं मर जाऊँ
मत करना मुझे याद
न छपवाना अखबारों में
मेरा मृत्यु-संवाद
वह होगा मेरे बाद
लाठियाँ पीटना
सँभाले रखना
अपने-अपने ज़हर
बेशकीमती हैं
हैं भी नानाविध
आयेंगे ज़रूरत पर काम
पढऩा मेरी उपेक्षित कविताएँ
मिलेगा इनमें
एक अन्य प्रकार का विष
मीठा-मठा
जो मारेगा नहीं
थपकी देकर देगा सुला
इसलिये मित्रो
मैं फिर कहता हूँ
मर जाऊँ
मत पीटना पीछे से लाठियाँ
वर्ना, भावी पीढिय़ाँ
सहज ही समझ जाएँगी
मैं था एक ज़हरीला साँप।
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