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{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसी रमण
|संग्रह=ढलान पर आदमी / श्रीनिवास श्रीकांत
}}
<Poem>
बड़ी मेहनत से पाले गए कल्पवृक्ष के शिखर पर बसेरा है सर्वभक्षी कव्वों का
फलों को कुतर–कुतर कर
टहनियों पर टांग दी है जातियों की लंबी–लंबी सूचियां टांक दिए हैं
तने पर हिज्जे सम्प्रदायों के शाखाओं से रिसता है गोंद विधर्मता का
छाया में एसकी रचना बलात्कारों की
पत्ता-पत्ता है छलनी
स्वार्थ के तीरों से
भीतर ही भीतर से
पड़ा है खोखला तन्त्र का महातरु
भरपेट कुड़-कुड़ाते हैं कव्वे महावृक्ष की जड़ें गड़ती जा रहीं गहरी जमीन में
तना मजबूत तना रहा बराबर लहलहा रहीं शाखाएं हरी–भरीं प्रभामंडल में इसके पल रही पसरी खुशहाली
हवा में डोलते जर्जर वृक्ष पर कभी कांप उठते हैं कव्वे देते महावृक्ष के टूट गिरने का रहस्यमय संकेत
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसी रमण
|संग्रह=ढलान पर आदमी / श्रीनिवास श्रीकांत
}}
<Poem>
बड़ी मेहनत से पाले गए कल्पवृक्ष के शिखर पर बसेरा है सर्वभक्षी कव्वों का
फलों को कुतर–कुतर कर
टहनियों पर टांग दी है जातियों की लंबी–लंबी सूचियां टांक दिए हैं
तने पर हिज्जे सम्प्रदायों के शाखाओं से रिसता है गोंद विधर्मता का
छाया में एसकी रचना बलात्कारों की
पत्ता-पत्ता है छलनी
स्वार्थ के तीरों से
भीतर ही भीतर से
पड़ा है खोखला तन्त्र का महातरु
भरपेट कुड़-कुड़ाते हैं कव्वे महावृक्ष की जड़ें गड़ती जा रहीं गहरी जमीन में
तना मजबूत तना रहा बराबर लहलहा रहीं शाखाएं हरी–भरीं प्रभामंडल में इसके पल रही पसरी खुशहाली
हवा में डोलते जर्जर वृक्ष पर कभी कांप उठते हैं कव्वे देते महावृक्ष के टूट गिरने का रहस्यमय संकेत
</poem>
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