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पवाड़ा / तुलसी रमण

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आओ चले उस गाँवबहुत डर लगता है मित्र जहाँ झड़ते अनायास पहाड़ की कोई पसली जब टूटकर पके फल - डाल-डाल छाँव- छाँव ढलानो से लढ़कती चली जाती है चलो जीयें उस पेड़ की छाँव आँखें बंद कर लेता हूं जिसका वह एक फल जब कोई देवदार ‘झाँणों- मनसा’ ने औंधे मुंह गिरता ह्ऐ राजमार्ग अवरुद्ध हो जाता है स्क्रीन पर दिखाए जाते हैं चखा था आधा-आधा अनगिनत शव रह गए थे देखतेछूट गया था बीज और वाचक उसी पेड़ की छाँव बीज -दर –बीज उगते रहे किनते ही शाखीझड़ते रहे कितने फलस्तब्ध रहा पहाड़ों का परस्पर टकरानाथक गया गाँव से गाँव सुलगना मुस्कान के साथ गूँजता रहा ‘पवाड़ा’ हर घाटी,गाँव-गाँव पढ़ता है दुर्घटना के समाचार
काया हो जाओ सहम जाते हूं मेरा भाई जबतुम उस फल जुदा रहने की बात करता है बूढ़ी माँ मर जाने को कहती है और पत्नि करती है प्रार्थना संभल कर जाने की बीज हो जाता हूँ मैं यहां तक कि बेटा भी और उगते रहें बार-बारकैंसर होने से आगाह करता हैबीड़ी न पीने को कहता है बस अड्डे के बोर्ड पर लिखा है रहता है एडस का कोई ईलाज नहीं ग्रहण न करें बिना जाँच किसी का ख़ून सुनो मित्र! तुम बताओ इतनी चेतावनिओं के बीच जीना घाटी-घाटी गाँव-गाँवक्या आसान है?
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