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02:04, 25 जनवरी 2009 अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूं ही कभू लब खोले हैं<br>
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं<br>
दिन में हम को देखने वालों अपने अपने हैं औक़ाब<br>
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं<br>
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई<br>
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं<br>
बाग़ में वो ख्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर<br>
ड़ाली ड़ाली नौरस पत्ते सहस सहज जब ड़ोले हैं<br>
उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें<br>
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गां जब फ़ितने पर तोले हैं<br>
इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम<br>
खल्वत में वो नर्म उंगलियां बंद-ए-क़बा जब खोले हैं<br>
ग़म का फ़साना सुनने वालों आखिर-ए-शब आराम करो<br>
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं<br>
हम लोग अब तो पराये से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"<br>
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं