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02:14, 25 जनवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मजाज़ लखनवी
|संग्रह=
}}
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?<br>
मैने माना के तुम इक पैकर-ए-रानाई हो<br>
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो<br>
तलत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो<br>
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो<br>
मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है<br>
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है<br>
ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने<br>
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने<br>
शहर-ए-ख़ूबां में गंवाई है जवानी मैने<br>
ख़्वाबगाहों में गंवाई है जवानी मैने<br>
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है<br>
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है<br>
उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूं तारी था<br>
सर पे सरशरी-ओ-इशरत का जुनूं तारी था<br>
माहपारों से मोहब्बत का जुनूं तारी था<br>
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था<br>
एक बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी<br>
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी<br>
क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार<br>
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार<br>
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार<br>
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार<br>
वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहां से लाऊँ<br>
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ<br>