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"किस लोक गीत से मारी।"
कवि बोला-"हमारी है हमारी
विश्वास ना हो तोसंचालक से पूछ लो।"संचालक बोला-"गाओ या मत गाओमैं झूठ नहीं बोलतागवाही मुझसे मत दिलवाओ।" संचालक ने दूसरे कवि से कहा-"गोपालजी आप ही आइएये श्रोता रूपी कैरवकविता को नंगा कर रहे हैंलाज बचाइए।" गोपालजी जैसे ही शुरू हुए-"तू ही साक़ीतू ही बोतलतू ही पैमाना"किसी ने पूछा-"गुरू!ये कविसम्मेलन है या मैख़ाना।"कवि बोला-"मैं खानदानी कवि हूँमुझसे मत टकराना"आवाज़ आई-"क्या आप के बाप भी कवि थे।"कवि बोला-"जी हाँ, थेमगर आप ये क्यों पूछ रहे हैं।"उत्तर मिला-"हम आपकी बेवक़ूफ़ी की जड़ ढूढ रहे हैं।" अबकी बार-एक आशुकवि को उठाया गया-उसने कहा-"आपने हमें कई बार सुना है।"आवाज़ आई-"जी हाँ आपकी बकवास सुनकरकई बार सिर धुना है"कवि बोला-"संभलकर बोलनाहमारे पास कलेज़ा हैउपर से नीचे तक भेजा ही भेजा है।"किसी ने पूछा-"आपको किसने भेजा है?"कवि बोला-"हम बनारस में रहते हैंरस हमारे यहाँ ही बनते है।"उत्तर मिला-"यहाँ के श्रोता मुश्किल से बनते हैबकवास नहीं कविता सुनते है।"कवि बोला-"कविता तो कविता हम अख़बार तक को गा कर पढ़ सकते हैंमंच पर ही नहीं छाती पर भी चढ़ सकते है।"आवाज़ आई -"यहा से दरासिंग भीआड़ासिंग होकर गए है।"कवि बोला-"हम दारासिंग नहीं हैंदुधारासिंग हैंदोनो तरफ धार रखते हैंकवि होकर भी कार रखते हैं।"संचालक बोला-"बेकार मुंह मत लड़ाओकविता हो तो सुनाओ।"कवि ने संचालक को पलटकर कहा-"अच्छा! हमारी बिल्ली हम से ही म्याऊँकविता क्या होती है सुनाऊँ