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<poem>
कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं –
'सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!
तरक़्क़ी के गोल-गोल
घुमावदार चक्करदार
ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की
चढ़ते ही जाने की
उन्नति के बारे में
तुम्हारी ही ज़हरीली
उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!'
कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों औरढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर मेंबियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।अजीब-सी होती है, चारों ओरवीरान-वीरान महक सुनसानों कीपूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।वैसे ही लगता है, महसूस यह होता है'उन्नति' के क्षेत्रों में, 'प्रतिष्ठा' के क्षेत्रों मेंमानव की छाती की, आत्मा की, प्राणी कीसोंधी गंधकहीं नहीं, कहीं नहींपूनों की चांदनी यह सही नहीं, सही नहीं;केवल मनुष्यहीन वीरान क्षेत्रों मेंनिर्जन प्रसारों परसिर्फ़ एक आँख से'सफलता' की आँख सेदुनिया को निहारती फैली हैपूनों की चांदनी।सूखे हुए कुओं पर झुके हुए झाड़ों मेंबैठे हुए घुग्घुओं व चमगादड़ों के हितजंगल के सियारों औरघनी-घनी छायाओं में छिपे हुएभूतों और प्रेतों तथापिचाशों और बेतालों के लिए –मनुष्य के लिए नहीं – फैली यहसफलता की, भद्रता की,कीर्ति यश रेशम की पूनों की चांदनी।<यpoem/poem>
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