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Kavita Kosh से
<Poem>
कपड़े की तरह निचोड़े हुए फटकारे हुए वर्तमान को
भविष्य से भिगोती है बूंडबूंद-बूंद रिसती हुई काली रात
अभी इस बाग़ीचे का वह हिस्सा भी डूब जाएगा
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