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शहर में सूर्यास्त / धूमिल

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<poem>
अधजले शब्दों के ढेर में तुम
क्या तलाश रहे हो?
तुम्हारी आत्मीयता –
जले हुए काग़ज़ की वह तस्वीर है
जो छूते ही राख हो जायेगी।
इस देश के बातूनी दिमाग़ में
किसी विदेशी भाषा का सूर्यास्त
फिर सुलगने लगा है
लाल-हरी झण्डियाँ –
जो कल तक शिखरों पर फहरा रही थीं
वक़्त की निचली सतहों में उतरकर
स्याह हो गई है और चरित्रहीनता
मन्त्रियों की कुर्सी में तब्दील हो चुकी है
तुम्हारी तरह मुझे भी अफ़सोस है
मैंने भी इस देश को
एक जवान आदमी की
रंगीन इच्छाओं की पूरी गहराई से
प्यार किया था
मगर अब, अतीत से अपना चेहरा
देखने के लिए
शीशे की धूल झाड़ना बेकार है
उसकी पालिश उतर चुकी है
और अब उसके दोनों ओर, सिर्फ़
दीवार है
जिसके पीछे –
राजनीतिक अफ़वाहों का शरदकालीन
आकाश नगर के लफंगों में
आखिरी नाटक की मनपसंद भूमिकाएँ
बाँट रहा है
'रिहर्सल' के हवा-बन्द कमरों में
खिड़कियों के गन्दे मुहावरे गूँज रहे हैं
शाम हो रही है
दिन की मुंडेर पर, अन्धकार में आधा
झुका सूरज
अपनी जांघों पर
रोशनी की गुलेल तोड़ रहा है
रंगों की बदचलन इच्छाएँ
शहर का सबसे अच्छा 'शो केस' तैयार
कर रही है
उन्होंने जनता और ज़रायमपेशा
औरतों के बीच की
सरल रेखा को काटकर
स्वास्तिक चिन्ह बना लिया है
और हवा में एक चमकदार गोल शब्द
फेंक दिया है – 'जनतन्त्र'
जिसकी रोज़ सैकड़ों बार हत्या होती है
और हर बार
वह भेड़ियों की ज़ुबान पर ज़िन्दा है!
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