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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=केशव|संग्रह=}} <poem> '''एक'''
तुम हो
मैं हूं
प्रेम है
तुम नहीं हो
मैं भी नहीं
जीवित हैं
हम
सिर्फ प्रेम में
मृत
प्रेम की स्मृति में
'''(दो)'''
प्रेम
खोजता हमें
प्रेम को
हम नहीं
फिर रहता हममें
जैसे
मछ्ली का घर
पानी
पानी रहता है
पानी
लेकिन हम
मछली
रेत पर
'''(तीन)'''
प्रेम ने दी
दस्तक
हम ही रहे
बेखबर
गुज़र गया जैसे कोई
अपना
पता बता कर
खत लिखकर भी
रह गया
दराज में
बोलकर भी चुप
रह गया हो
जैसे कोई
आने को कह्कर भी
बीच रास्ते से
जैसे
डाल से
अलग होकर भी
हवा में
अटका रह गया हो
पत्ता कोई
हादसा नहीं
खबर भी नहीं
अखबार के किसी
कोने में चस्पां
एक चुप्पी है
धीरे-धीरे
घटित होती
आत्मा के झुट्पुटे में
खोलती खुद को
तह-दर-तह
फिर छा लेती
पेड़ को जैसे
भीड़ की
रेलमपेल में
खो गया है
आजकल
ढूंढना मुश्किल
भीड़ के छंटने तक
रह जाएगा
कितना शायद
समय की हवा में
एक पीले पत्ते
जितना
ठहरे हुए जल में
एक पत्ता गिरा
डूबा
डूबता ही चला गया
जल मय होने तक