बहुमुखी प्रतिभा इसे हिन्दी का प्रथम महा कवि माना जाता है। इनका पृथ्वीराजरासो हिंदी का प्रथम महाकाव्य है। चंद दिल्ली के धनी, चन्द वरदाई आदिकाल अंतिम हिंदू सम्राट महाराज पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि के रुप में जाने जाते हैं। इससे इनके नाम में भावुक हिन्दुओं के लिए एक विशेष प्रकार का आकर्षण बढ़ता है। जन्म रासो के अनुसार ये भ जाति के जगात नामक गोत्र के श्रेष्ठ कवि थे। उनका जीवन काल बारहवीं शताब्दी इनके पूर्वज की भूमि पंजाब थी। इनका जन्म लाहोर में हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक उत्तम कवि होने ही दिन हुआ था। ये महाराज पृथ्वीराज के राजकवि के साथ-साथ उनके सखा ओर सामंत भी थे। वे षड्भाषा, वह एक कुशल योद्धा और राजनायक व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद:शास्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक आदि अनेक विद्याओं में पारंगत थे। इन्हें जालंधरी देवी का इष्ट था जिनकी कृपा से ये अदृष्ट-काव्य भी कर सकते थे। वह इनका जीवन पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र जीवन के साथ ऐसा मिला हुआ था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में, सदा महाराज के साथ रहते थे, और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे। उनका रचित महाकाव्य " चन्द और पृथ्वीराजरासो पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें ६९ समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों का इसमें व्यवहार हुआ है। मुख्य छन्द हैं - कवित्त (छप्पय), दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादंबरी के संबंध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण के पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया गया है। रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके गजनी ले गया, तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासोकी पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है - पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज ।<br>रघुनाथनचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि ।<br>पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि ।। <br> रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासा के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ ठहराया है। रासो में चंगेज, तैमूर आदि कुछ पीछे के नाम आने से यह संदेह और भी पुष्ट हाता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा रासो में वर्णित घटनाओं तथा संवतों का बिल्कुल भाटों की कल्पना मानते हैं। पृथ्वीराज की राजसभा के काश्मीरी कवि जयानक ने संस्कृत में " हिन्दी पृथ्वीराजविजय' नामक एक काव्य लिखा है जो पूरा नहीं मिला है। उसमें दिए हुए संवत् तथा घटनाएं ऐतिहासिक खोज के अनुसार ठीक ठहरती है। उसमें पृथ्वीराज की माता का प्रथम नाम कर्पूरदेवी लिखा है जिसका समर्थन हाँसी के शिलालेख से भी होता है। उक्त ग्रंथ अत्यंत प्रामाणिक और समसामयिक रचना है। उसके तथा "हम्मीर महाकाव्य माना जाता ' आदि कई प्रामाणिक ग्रंथों के अनुसार सोमेश्वर का दिल्ली के तोमर राजा अनंगपाल की पुत्री से विवाह होना और पृथ्वीराज का अपने नाना की गोद जाना, राणा समरसिंह का पृथ्वीराज का समकालीन होना और उसके पक्ष में लड़ना, संयोगिताहरण इत्यादि बातें असंगत सिद्ध होती हैं। इसी प्रकार आबू के यज्ञ से चौहान आदि चार अग्निकुलों की उत्पत्ति की कथा भी शिलालेखों की जाँच करने पर कल्पित ठहरती है, क्योंकि इनमें से सोलंकी, चौहान आदि कई कुलों के प्राचीन राजाओं के शिलालेख मिले हैं जिनमें वे सूर्यवंशी, चंद्रवंशी आदि कहे गए हैं, अग्निकुल का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या ने रासो के पक्ष समर्थन में इस महाकाव्य बात की ओर ध्यान दिलाया कि रासो के सब संवतों में ६९ खण्ड , यथार्थ संवतों से ९०-९१ वर्ष का अन्तर एक नियम से पड़ता है। उन्होंने यह विचार उपस्थित किया कि यह अंतर भूल नहीं है, बल्कि किसी कारण से रखा गया है। इसी धारणा को लिए हुए उन्होंने रासो के इस दोहे को पकड़ा - एकादस सै पंचदह विक्रम साक अनंद ।<br>तिहि रिपुजय पुरहरन को भग पृथिराज नकिंरद ।। <br><br> फिर यह भी विचारणीय है कि जिस किसी ने प्रचलित विक्रम संवत् में से ९०-९१ वर्ष निकालकर पृथ्वीराजरासो में संवत् दिए हैं और इसकी गणना हिन्दी , उसने क्या ऐसा जान बूझकर किया है अथवा धोखे या भ्रम में पड़कर। ऊपर जो दोहा उद्धृत किया गया है, उसमें अनंद के स्थान पर कुछ लोग अनिंद पाठ का होना अधिक उपयुक्त मानते हैं। इसी रासो में एक दोहा यह भी मिलता है - एकादस सैपंचदह विक्रम जिम ध्रमसुत्त ।<br>त्रतिय साक प्रथिराज कौ लिष्यौ विप्र गुन गुत्त ।। <br><br> जीवन परिचय हिंदी के महान ग्रन्थों कवि चन्दबरदाई का जन्म संवत् १२२५ में की जाती हुआ था। उनका जन्म स्थान लाहौर बताया जाता है। चन्द वरदाई पृथ्वीराज के काव्य पिता सोमेश्वर के समय में राजपूताने आए थे। सोमेश्वर ने आपको अपना दरबारी कवि बनाया। यहीं से आपकी दरबारी जिंदगी शुरु होती है। पृथ्वीराज के समय में आप नागौर में बस गए। यहाँ आज भी आपके वंशज रहते हैं। चन्दबरदाइ के वंशज का वंशवृक्ष चन्दबरदाई की भाषा पिंगल थी जो कालान्तर औलाद चंद के वंश के सितारे नानूराम के अनुसार चंद के चार लड़के थे। चार में बृज भाषा से एक लड़का मुसलमान हो गया। तीसरा लड़का अमोर में बस गया और उसका वंश वहीं चलता रहा। चौथे लड़के का वंश नागौर में चला। चंद ने पृथ्वीराजरासो में अपने लड़कों का उल्लेख इस प्रकार किया है:- दहति पुत्र कविचंद कै सुंदर रुप सुजान।<br>इक्क जल्ह गुन बावरो गुन समुदं ससभान।।<br><br> साहित्य लहरी की टीका में एक पद इस तरह बयान करता है -- प्रथम ही प्रथु यज्ञ ते ये प्रगट अद्भुत रुप।<br>ब्रह्मराव विचारी ब्रह्मा राखु नाम अनूप।।<br>पान पय देवी दियो सिव आदि सुर सुख पाय।<br>कहमो दुर्गा पुत्र तेरो भयो अति अधिकाय।।<br>पारि पाँयन सुख के रूप सुर सहित अस्तुति कीन।<br>तासु बंस प्रसंस मैं भौ चंद चारु नवीन।।<br>भूप पृथ्वीराज दीन्हीं तिन्हें ज्वाला दंस।<br>तनय ताके चार कीनो प्रथम आप नरेस।।<br>दूसरे गुनचंद ता सुत सीलचंद सरुप।<br>वीरचंद प्रताप पूरन भयो अद्भुत रुप।।<br>रणथंभौर हमीर भूपति लँगत खेसत जाये।<br>तासू बंस अनूप भौ हरिचंद अति विख्यात।।<br>आगों रहि गोपचल मैं रहयो तर सुत वीर।<br>पुत्र जन्मे सात तोके महा भट गंभीर।।<br>कृष्णाचंद्र उदारचंद जु रुपचंद सुभाई।<br>बुद्धिचंद प्रकास चौथे चंद में विकसित हुई। उनके काव्य सुखदाई।।<br>देवचंद प्रबोध संसृतचंद ताको नाम।<br>भयो सप्तो नाम सूरजचंद मंद निकाम।।<br><br> उपर्युक्त पद और नानूराम के द्वारा बताये गए एक नाम के अलावा सभी नाम मिलते- जुलते दिखाई देते हैं। चन्दबरदाइ दरबार में चरित्र चित्रण चन्द दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज के दरबार में एक सामंत तथा राजकवि के रुप में प्रसिद्ध हैं। इनका जन्म और सम्राट पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ माना जाता है। दोनों की इस संसार से विदाई भी एक ही दिन हुई थी। दुनिया में आने से मरने तक दोनों एक साथ वीर रस रहे। ये दोनों कहीं भी एक साथ दिखाई दे सकते थे। महाराज चाहे घर में हों, युद्ध में या यात्रा में चन्दजी साथ में अवश्य होते थे और श्रृंगार प्रत्येक बात मशविरे में शामिल रहा करते थे। इसी अथाह प्रेम में चन्दबरदाई ने हिंदी भाषा का प्रथम महाकाव्य पृथ्वीराज रासो की रचना कर डाली। इसमें चंद ने पृथ्वीराज की जिंदगी की अनेक घटनाओं उका उल्लेख किया है। इसमें पायी जाने वाली बहुत- सी घटनाओं से पृथ्वीराज की चरित्र को प्रस्तुत में सार्मथ्य मानी जाती हैं। यह महाकाव्य ढ़ाई हजार पृष्ठों का विशाल ग्रंथ है। इसमें कुल मिलाकर उनहत्तर अध्याय की रचना की गई है। बाण की कादंबरी की तरह पृथ्वीराजरासो के बारे में भी यह कहा जाता है कि पिछले भाग को चंद के पुत्र जल्हण ने पूर्ण किया। चंद ने अपने पुत्र जल्हण को यह महान काव्य देते हुए कहा था :- पुस्तक जल्हण हत्थ है चलि गज्ज्न नृपकाज।<br>रघुनाथ चरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि।<br>पृथ्वीराज सुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि।।<br><br> नानूराम के अनुसार उसके पास पृथ्वीराज रासो की एक असल प्रति अब भी मौजूद है। इस असली पृथ्वीराजरासो का एक नमूना जो पद्मावती के समय का है, उल्लेख किया जा रहा है:- हिंदूवान थान उत्तम सुदेस।<br>तहँ उदित द्रूग्गा दिल्ली सुदेस।<br>संभरिनरेस चहुआन थान।<br>पृथ्वीराज तहाँ राजत भान।।<br>संभरिनरेस सोमेस पूत।<br>देक्त रुप अवतार धूत।।<br>जिहि पकरि साह साहाब लीन।<br>तिहुँ बेर करिया पानीप हीन।।<br>सिंगिनि- सुसद्द गुनि चढि जंजीर।<br>चुक्कइ न सबद बधंत तीर।।<br>मनहु कला ससमान कला सोलह सो बिन्नय।<br>बाल वेस, ससिता समीप अभ्रित रस पिन्निय।।<br>विगसि कमलास्त्रिग, भमर, बेनु खंजन मग लुट्टिय।<br>हरी, कीय, अरु, बिंब मोति नखसिख अहिघुट्टिय।।<br><br> कुट्टिल केस सुदेस पोह परिचियत पिक्क सह।<br>कमलगंध बयसंघ, हंसगति चलाति मंद मंद।।<br>सेत वस्र सोहे सरीर नख स्वाति बूँद जस।<br>भमर भवहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद बास रस।।<br><br> पृथ्वीराज की विशेषताओं का मोहक समन्वय उल्लेख करते हुए कहा:- प्रिय प्रथिराज नरेस जोग लिखि कग्गार दिन्नो।<br>लगन बराग रचि सरब दिन्न द्वादस ससि लिन्नो।।<br>से ग्यारह अरु तीस साष संवत परमानह।<br>जो पित्रीकुल सुद्ध बरन, बरि रक्खहु प्रानह।।<br>दिक्खंत दिट्ठि उच्चरिय वर इक पलक्क् विलँब न करिय।<br>अलगार रयनि दिन पंच महि ज्यों रुकमिनि कन्हर बरिय।।<br><br> पृथ्वीराजरासो की भाषा इस महाकाव्य की भाषा कई स्थानों पर आधुनिक सांचे में ढली दिखाई देती है।कुछ स्थानों पर प्राचीन साहित्यिक रुप में भी दिखाई देती हैं। इसमें प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों के साथ- साथ शब्दों के रुप और विभक्तियों के निशानात पुराने तरीके से पाये जाते हैं। बज्जिय घोर निसान राज चौहान चहों दिस।<br>सकल सूर सामंत समरि बल जंत्र मंत्र तिस।।<br>उद्वि राज प्रिथिराज बाग मानो लग्ग बीर नट।<br>कढ़त तेग मनवेग लगंत मनो बीजु झ छट।।<br><br> थकि रहे सुर कौतिज गगन।<br>रंगन मगन भाई सोन घर।।<br>हदि हरषि बीर जग्गे हुलसी।<br>दुरंउ रंग नवरत बर।।<br>खुरासान मुलतान खघार मीर।<br>बलख स्थो बलं तेग अच्चूक तीर।।<br>रुहंगी फिरगो हल्बबी सुमानी।<br>ठटी ठ भल्लोच ढालं निसानी।।<br>मजारी- चषी मुक्ख जंबु क्कलारी।<br>हजारी- हजारी हुकें जोध भारी।।<br><br>