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आज नाराज होने से क्‍या होगा
तुमने ही तो मुझे कविता लिखना सिखाया है

याद है न !
चुपचाप मेरी कापी से कविता पढ रही थी
और तुम्‍हारे पढने के लिए ही लिख रहा था मैं
चांद उगने पर कुईं खिले बिना रह सकती है कभी ?

लेकिन बड़ा कुशल है चांद
वह सागर में भर देता है ज्‍वार
उसे कुमुद की भला कैसी चिन्‍ता ?
वह अपने में मस्‍त, पर कुमुद लाचार
खिलने को विवश।

तुम्‍हें कैसे मालूम होगा कि
मैं कविता की खातिर कितनी बार मरता हूं
और जीता हूं। और किसी वैराग्‍य-आसक्ति में
जल-जल कर राख हो जाता हूं।

आज नाराज होने पर क्‍या होगा
तुमने ही तो मुझे कविता लिखना सिखाया है।

उडि़या से अनुवाद - वनमाली दास
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