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घड़ी / केदारनाथ सिंह

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<poem>
दुख देती है घड़ी
बैठा था मोढ़े पर
लेता हुआ जाड़े की धूप का रस
कि वहाँ मेज पर नगी चीखने लगी
'जल्दी करो, जल्दी करो
छूट जायेगी बस'
गिरने लगी पीठ पर
समय की छड़ी
दुख देती है घड़ी।

जानती हूँ एक दिन
यदि डाल भी आऊँ
उसे कुएँ में ऊबकर
लौटकर पाऊँगा
उसी तरह दुर्दम कठोर
एक टिक् टिक् टिक् टिक् से
भरा है सारा घर

छोड़ेगी नहीं
अब कभी यह पीछा
ऐसी मुँहलगी है
इतनी सिर चढ़ी है
दुख देती है घड़ी।

छूने में डर है
उठाने में डर है
बाँधने में डर है
खोलने में डर है

पड़ी है कलाई में
अजब हथकड़ी
दुख देती है घड़ी।

(1983)
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