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|रचनाकार=अविनाश
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अब पीया नहीं जाता पानी
<br />मन बेमन रह जाता है<br />प्यास बाक़ी<br />आत्मा अतृप्त<br /><br />सन चौरासी में पहली बार देखा था फ्रिज<br />सन चौरानबे में पीया था पहली बार उसका पानी<br />दो हज़ार चार में अपना फ्रिज था<br /><br />गर्मी में घर लौटना अच्छा लगता था<br />बीच-बीच में उठ कर फ्रिज से बोतल निकालना<br />दो घूंट घूँट गले में डाल कर फिर बिस्तर पर लेटना<br />किताब पढ़ना छत की ओर देखना कुछ सोचना<br /><br />हमने पानी की यात्रा एक गिलास, एक लोटे से शुरू की थी<br />आज अपना फ्रिज है फ्रिज में ठंडा होता पानी अपनी मिल्कियत<br /><br />मौसम बदल रहा है<br />ठंडा पानी पीया नहीं जाता<br />कम ठंडा भी गले से उतरता नहीं<br />ज़रूरत भर ठंडा पानी जब तक कहीं से आये<br />प्यास धक्का देकर कहीं भाग जाती है<br /><br />कैसे लोग होते हैं वे<br />जिनकी प्यास जैसे ही लगती है बुझ जाती है!<br />सचिवालय का किरानी पीने भर ठंडा पानी कहां कहाँ से मंगवाता है!<br />क्या दिल्ली में मिलता है पानी!<br />यमुना किनारे बसे लोग तो पानी के नाम से ही कांपते काँपते होंगे<br /><br />सुना है प्रधानमंत्री के लिए परदेस से आता है पानी<br /><br />थक कर प्यास से बेकल घर पहुंच पहुँच कर भी<br />पानी भरा हुआ गिलास मेरी हथेलियों के बीच फंसा फँसा है<br />बहुत ठंडा है बहुत गर्म<br /><br />हम साधारण आदमी का सफ़र फिर से शुरू करना चाहते हैं<br />नगरपालिका के टैंकर के आगे कतार में खड़े होना चाहते हैं<br />बस से उतर कर पारचून की दुकानों में सजी बंद बोतलों से मुंह मुँह चुराना चाहते हैं<br /><br />सड़क पर ठेले का पानी मिलता है सिर्फ सिर्फ़ पचास पैसे में<br />एक के सिक्के में दो गिलास<br /><br />पर इसमें मिट्टी की बास आती है<br />गले में खुश्की जम जाती है<br />मुझे रुलाई आती है<br />मुझे ज़ोर की प्यास सताती है!>/poem>