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01:08, 15 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जानकीवल्लभ शास्त्री
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<poem>
सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा ।
और मुझसे मन न मारा जायेगा ॥
विकल पीर निकल पड़ी उर चीर कर,
चाहती रुकना नहीं इस तीर पर,
भेद, यों, मालूम है पर पार का
धार से कटता किनारा जायेगा ।
चाँदनी छिटके, घिरे तम-तोम या
श्वेत-श्याम वितान यह कोई नया ?
लोल लहरों से ठने न बदाबदी,
पवन पर जमकर विचारा जायेगा ।
मैं न आत्मा का हनन कर हूँ जिया
औ, न मैंने अमृत कहकर विष पिया,
प्राण-गान अभी चढ़े भी तो गगन
फिर गगन भू पर उतारा जायेगा ।
('उत्पल दल')
</poem>