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<poem>जो था दिल का दौर गया मगर है नज़र में अब भी वो अंजुमन<br>वो खयाल-ए-दोस्त चमन चमन, वो जमाल-ए-दोस्त बदन बदन<br><br>
अभी इब्तिदा-ए-हयात है, अभी दूर मंजिल-ए-इश्क है<br>अभी मौज-ए-खून है, नफस नफस, अभी ज़िन्दगी है कफन कफन<br><br>
मेरे हम-नफस गया दौर जब फकत आशियानो कि की बात थी<br>के है आज बर्क की राअ में, मेरा भी चमन तेरा भी चमन<br><br>
तेरे बहर-ए-बख्शीश-ओ-लुत्फ जो कभी हुई थी अता मुझे<br>मेरे दिल में है वही तशन्गी, मेरी रूह में है वही जलन<br><br>
ना तेरी नज़र में जँचे कभी, गुल-ओ-गुन्चा में जो है दिलकशी<br>जो तू इत्तेफाक से देख ले कभी, खार में है जो बाँकपन<br><br>
ये ज़मीं और उसकी वसतेंवसीयतें, ना मेरी बनें ना तेरी बनें<br>मगर इस पे भी ये है ज़िद हमें, ये तेरा वतन वो मेरा वतन<br><br>
वही मैं हुँ हूँ जिसका हर एक शेर एक आरज़ू का मजार है<br>कभी वो भी दिन थे के जिन दिनों, मेरी हर गज़ल थी दुल्हन दुलहन<br><br>
ये नहीं के बज्म-ए-तरब में अब कोई नगमा-ज़न हि ना ही न रहा<br>मैं अकेला इस लिये रह गया के बदल गय़ी है वो अंजुमन<br><br>
मेरी शायरी है छुपी हूई हुई मेरी ज़िन्दगी के हिजाब में<br>ये हिजाब उट्ठे उठे तो अजब नहीं परे पड़े मुझ पे भी निगाह-ए-वतन<br><br>
वो अजीब शेर-ए-फ़िराक था के है रूह आलम-ए-वज्द में<br>
वो निगाह-ए-नाज़ जुबाँ जुबाँ, वो सुकूत-ए-नाज़ सुखन सुखन
</poem>
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