भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधा ओम ढींगरा }} <poem> साथ-साथ इकठ्ठे चले दुनिया जी...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुधा ओम ढींगरा
}}
<poem>
साथ-साथ इकठ्ठे चले
दुनिया जीतने हम.
सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ते गए--
पीछे न मुड़े हम.
बुलंदियां छूने
ऊँचे उठे--
बेखबर उड़ते ही रहे हम.
प्रेम, समझौता भूल
अस्तित्व-व्यक्तित्व से--
टकराते रहे हम.
स्वाभिमान मेरा
अहम् तुम्हारा--
अकड़ी गर्दनों से अड़े रहे हम.
अकाश से तुम
धरती सी मैं--
क्षितिज तलाशते रहे हम.
भोर की लालिमा
साँझ की कालिमा--
डगमग सा जीते रहे हम.
बेतुकी बातों का मुद्दा बना
निस्तेज से प्राणी--
भावनाओं को चोटें पहुँचाते रहे हम.
असमान छूते
नीड़ तलाशते--
चोंच से चोंच लड़ाते रहे हम.
वक्त ने झटका दिया
हाथ छूटा, साथ टूटा--
दिशाओं अलग में चल दिए हम.
मैं कहाँ और
तुम कहाँ चल दिए
कहाँ से क्या हो गये हम.
दुनिया तो दूर, स्वयं को भी
जीतने के काबिल न रहे हम.
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=सुधा ओम ढींगरा
}}
<poem>
साथ-साथ इकठ्ठे चले
दुनिया जीतने हम.
सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ते गए--
पीछे न मुड़े हम.
बुलंदियां छूने
ऊँचे उठे--
बेखबर उड़ते ही रहे हम.
प्रेम, समझौता भूल
अस्तित्व-व्यक्तित्व से--
टकराते रहे हम.
स्वाभिमान मेरा
अहम् तुम्हारा--
अकड़ी गर्दनों से अड़े रहे हम.
अकाश से तुम
धरती सी मैं--
क्षितिज तलाशते रहे हम.
भोर की लालिमा
साँझ की कालिमा--
डगमग सा जीते रहे हम.
बेतुकी बातों का मुद्दा बना
निस्तेज से प्राणी--
भावनाओं को चोटें पहुँचाते रहे हम.
असमान छूते
नीड़ तलाशते--
चोंच से चोंच लड़ाते रहे हम.
वक्त ने झटका दिया
हाथ छूटा, साथ टूटा--
दिशाओं अलग में चल दिए हम.
मैं कहाँ और
तुम कहाँ चल दिए
कहाँ से क्या हो गये हम.
दुनिया तो दूर, स्वयं को भी
जीतने के काबिल न रहे हम.
</poem>