भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ कहती थी / सुधा ओम ढींगरा

1,530 bytes added, 00:53, 26 फ़रवरी 2009
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधा ओम ढींगरा }} <poem> रोये जब देस में रोया सारा आलम...
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुधा ओम ढींगरा
}}
<poem>
रोये जब देस में
रोया सारा आलम
संगी-साथी
रिश्तेदार
जाने
पहचाने
अनजाने
बेगाने
रोये सब साथ-साथ.
रोये जब परदेस में
रोई तन्हाई----
एकांत
अकेलापन---
सूनी-सूनी दीवारें
खाली-खाली बड़े घर.
पश्चिम में
महलों
चौबारों
कारों की
दौड़--
बना देती है
एक खोल
सिमटा है जिसमें हर इन्सां
व्यस्त है यहाँ हर इन्सां
समय नहीं किसी के आँसू पौंछें--
माँ कहती थी
सुख बाँटने से है बढ़ता
दुःख बाँटो तो कम है होता
उल्टा ही देखा यहाँ---
परदेस की धरती
करती है अमीर
डालर
तन्हाई
ईर्ष्या या
ग़म की समाई---
पर दिल से हैं ग़रीब
दूसरे की खुशी
अपना ग़म
बाँटा नहीं जाता----
देखा,
हम कितने हैं अमीर----
और तुम----
</poem>