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छाँव छम्म से
कूद कर
वृक्षों से
स्वागत करती है.....
धूप के मुसाफिर का.
जिसके,
चेहरे की रंगत
हो गई
तांबे रंग सी
जिस्म
बुझे अलाव सा.
और.........कहती है
ऐ! मुसाफिर
दो घड़ी
मेरे पास आ
सहला दूँ,
ठंडी साँसों से-
तरोताज़ा कर दूँ
तुम्हें,
चहकते
महकते
बढ़ सको
अपनी मंजिल की ओर.
फिर पूछा.....
जीवन के किसी
मोड़ पर
तुम्हारा मेरा
सामना हुआ,
तो.......
तुम
पहचान लोगे मुझे?
पगली सामना कैसे?
पहचानना कैसे?
तेरा मेरा
जन्म जन्मांतर
हर पल
क्षण
का है साथ
प्राकृत
आत्मिक
वह मुस्कराया.......
इतना सुन
छाँव---
पेड़ की
टहनियों में
छुप कर
निहारने लगी.....
धूप के
मुसाफिर
अपने पथदर्शक के
पाँव के निशाँ.
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