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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
}}
<poem>

तुम्हारे पास आकाश था
मेरे पास एक टेकरी
तुम्हारे पास उड़ान थी
मेरे पास
सुनसान में हिलती पत्तियां
तुम जनमी थीं हंसी के लिये
इस कठोर धरती पर
तुमने रोपीं
कोमल फूलों की बेलें
मैं देखता था
और सोचता था

बहुत पुराने दरख़्तों की
एज दुनिया थी मेरे चारों ओर
थके परिंदों वाली
शाम थी मेरे पास
कुछ धुनें थीं
मैं चाहता था कि एक पूरी शाम तुम
थके परिंदों का
पेंड़ पर लौटना देखो

मैं तुम्हें दिखाना चाहता था
अपने शहर की नदी में
धुंधलाती रात
दुखों से भरी एक दुनिया

मैं भूल गया था
तुम्हारी भी एक दुनिया है
जिसमें कई और नदियां हैं
कई और दरख़्त
कुछ दूसरे ही रंग
कुछ दूसरे ही स्वर
शायद कुछ दूसरे ही
दुख भी !
</poem>
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