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[[Category:ग़ज़ल]]
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ख़ंजर—ब—क़फ़ है साक़ी तो साग़र लहू—लहू
 है सारे मयकदे ही का मंज़र लहू—लहू
 शायद किया है चाँद ने इक़दाम—ए—ख़ुदकुशी पुरकैफ़ चाँदनी की है चादर लहू—लहू  
हर—सू दयार—ए—ज़ेह्न में ज़ख़्मों के हैं गुलाब
 
है आज फ़स्ल—ए—गुल का तसव्वुर लहू—लहू
 
अहले—जफ़ा तो महव थे ऐशो—निशात में
 
होते रहे ख़ुलूस के पैक़र लहू—लहू
 
लाया है रंग ख़ून किसी बेक़ुसूर का
 
देखी है हमने चश्म—ए—सितमगर लहू—लहू
 
डूबी हैं इसमे मेह्र—ओ—मरव्वत की कश्तियाँ
 
है इसलिए हवस का समंदर लहू—लहू
 
क्या फिर किया गया है कोई क़ैस संगसार?
 
वीरान रास्तों के हैं पत्थर लहू—लहू
 
‘साग़र’! सियाह रात की आगोश के लिए
 
सूरज तड़प रहा है उफ़क़ पर लहू—लहू
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