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Kavita Kosh से
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जब भी देखा है दीवार पर टंगीटँगी
मोनालीसा की तस्वीर को
देख के कर आईने में ख़ुद को भी निहारा है
तब जाना कि ..
दिखती है उसकी मुस्कान
उसकी आंखो आँखों में
जैसे कोई गुलाब
धीरे -से मुस्कराता है
चाँद की किरण को
कोई हलका -सा 'टच' दे आता हैघने अंधेरे अँधेरे में भी चमक जाती हैउसके गुलाबी भींचे होंठो भिंचे होंठों की रंगत
जैसे कोई उदासी की परत तोड़ के
मन के सब भेद दिल में ओढ़ के
झूठ को सच और
सच को झूठ बतला जाती हैंहै
लगता है तब मुझे..
मोनालीसा में अब भी
दर्द पा कर भी
अपनों पर ,परायों पर
और फ़िरफिर
किसी दूसरी तस्वीर से मिलते ही
खोल देती है अपना मन
और कहीं की कहीं पहुँच जाती है
अपनी ही किसी कल्पना में
सारी हदें पार कर आती है
वरना यूं यूँ कौन मुस्कराता है
उसके भीचे हुए होंठो में छिपा
यह मुस्कराहट का राजराज़कौन कहाँ समझ पाता है!!
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