भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

संगिनी / रंजना भाटिया

9 bytes added, 13:01, 27 फ़रवरी 2009
<poem>
यूं यूँ जब अपनी पलके उठा के
तुम देखती हो मेरी तरफ़
मैं जानता हूँ
कि तुम्हारी आँखेआँखेंपढ़ रही होती हैहैं
मेरे उस अंतर्मन को
जो मेरा ही अनदेखा
पूर्ण करती हो मेरे अस्तित्व को
छाई सरदी सर्दी की पहली धूप की तरह
भर देती हो मेरे सूनेपन को
अपने साये से फैले वट वृक्ष की तरह
एक आकर्षण....
एक माँ ,एक प्रेमिका
और संग -संग जीने की लय
मैं जानता हूँ कि
प्रकति का सुंदर खेल
तेरे हर अक्स में रचा बसा है !!
<poem>