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{{KKRachna
|रचनाकार=धीरज आमेटा ’धीर’
}}
<poem>
हर दिन तो नहीं बाग़, बहारों का ठिकाना!
गुलदान को काग़ज़ के गुलों से भी सजाना!
मुश्किल है चिराग़ों की तरह खुद को जलाना!
भटके हुए राही को डगर उसकी दिखाना!
क्या खेल है फ़ेहरिस्त गुनाहों की मिटाना?
जन्नत के तलबगार का गंगा में नहाना!
तू खैर! मुसाफ़िर की तरह आ! मगर आना!
इक शाम मेरे खानः ए दिल में भी बिताना!
इक मैं हुँ जो गाता हुँ वो ही राग पुराना,
इक उनका रिवाजों की तरह मुझ को भुलाना!
दर्द आहो-फ़ुगाँ बन के हलक़ तक भी न आया!
क्या कीजे न आया जो हमें अश्क बहाना!
अफ़सोस कि अब ये भी रिवायत नहीं होगी,
खुशियों में पड़ोसी का पड़ोसी को बुलाना!
सुलझी है, न ये ज़ीस्त की सुलझेगी पहेली!
लोगों ने तमाम उम्र ग़वा दी तो ये जाना!
बदला ही नहीं हाल ए ज़माना ओ जिगर, "धीर"
फिर कैसे नयी बात, नये शेर सुनाना?
</poem>
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|रचनाकार=धीरज आमेटा ’धीर’
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<poem>
हर दिन तो नहीं बाग़, बहारों का ठिकाना!
गुलदान को काग़ज़ के गुलों से भी सजाना!
मुश्किल है चिराग़ों की तरह खुद को जलाना!
भटके हुए राही को डगर उसकी दिखाना!
क्या खेल है फ़ेहरिस्त गुनाहों की मिटाना?
जन्नत के तलबगार का गंगा में नहाना!
तू खैर! मुसाफ़िर की तरह आ! मगर आना!
इक शाम मेरे खानः ए दिल में भी बिताना!
इक मैं हुँ जो गाता हुँ वो ही राग पुराना,
इक उनका रिवाजों की तरह मुझ को भुलाना!
दर्द आहो-फ़ुगाँ बन के हलक़ तक भी न आया!
क्या कीजे न आया जो हमें अश्क बहाना!
अफ़सोस कि अब ये भी रिवायत नहीं होगी,
खुशियों में पड़ोसी का पड़ोसी को बुलाना!
सुलझी है, न ये ज़ीस्त की सुलझेगी पहेली!
लोगों ने तमाम उम्र ग़वा दी तो ये जाना!
बदला ही नहीं हाल ए ज़माना ओ जिगर, "धीर"
फिर कैसे नयी बात, नये शेर सुनाना?
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