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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धीरज आमेटा ’धीर’ }} <poem> ज़िन्दगी के पेच ओ खम से हम...
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{{KKRachna
|रचनाकार=धीरज आमेटा ’धीर’
}}
<poem>
ज़िन्दगी के पेच ओ खम से हम न थे वाक़िफ़ मगर,
हम जिये,दिल से जिये,छोड़ी नहीं कोई कसर!
तू सरापा खूबसूरत थी, मगर ऐ ज़िन्दगी!
हम ने पायी ही नही वो देखने वाली नज़र!
तू है सागर नूर का, और आत्मा इक बूँद है,
रूह हो जाये मुकम्मल, तुझमें मिल जाये अगर!
दैर की क्यों खाक छाने, जब वो हर ज़र्रे में है,
क्यों न उसके अक्स को दिल में ही ढुंढे हर बशर!
हम गरीबों के मुक़द्दर में भला कैसी बहार?
हमने कागज़ के गुलों पे इत्र छिड़का उम्र भर!
"चैन" था या ज़ीस्त के साहिल पे लिक्खा लफ़्ज़ था,
जब मिला तब लेहर ए ग़म को हो गयी इसकी खबर!
</poem>
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|रचनाकार=धीरज आमेटा ’धीर’
}}
<poem>
ज़िन्दगी के पेच ओ खम से हम न थे वाक़िफ़ मगर,
हम जिये,दिल से जिये,छोड़ी नहीं कोई कसर!
तू सरापा खूबसूरत थी, मगर ऐ ज़िन्दगी!
हम ने पायी ही नही वो देखने वाली नज़र!
तू है सागर नूर का, और आत्मा इक बूँद है,
रूह हो जाये मुकम्मल, तुझमें मिल जाये अगर!
दैर की क्यों खाक छाने, जब वो हर ज़र्रे में है,
क्यों न उसके अक्स को दिल में ही ढुंढे हर बशर!
हम गरीबों के मुक़द्दर में भला कैसी बहार?
हमने कागज़ के गुलों पे इत्र छिड़का उम्र भर!
"चैन" था या ज़ीस्त के साहिल पे लिक्खा लफ़्ज़ था,
जब मिला तब लेहर ए ग़म को हो गयी इसकी खबर!
</poem>