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कवि फ़रोश / शैल चतुर्वेदी

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जी, ये मन में कस्तूरी बोता है
जी, वो कवियों के बिस्तर ढ़ोता है
ये देश-प्रेम मे बहता रहता है
वो रात-रात भारत दहता रहता है
ये मन्दिर कैसे गाँव किनारे का
वो तैरा करता सागर पारे का
जी, ये सूरज को कै करवाता है
अनब्याही वो किरण बताता है
इसकी कमीज़ पर धूप बटन टाँके
जी, उसका गधा बैलो को हाँके
जी, क्यूँ हुज़ूर आप कुछ नहीं बोले
जी, क्यूँ हुज़ूर, हैं आप बड़े भोले
जी, इसमें क्या है नाराज़ी की बात
मेरी दुकान में कवियों की बारात
जी, नहीं जंचे ये, कहें तो नए दे दूँ
जी, नहीं चाहिए नए, हए दे दूँ।
: जी सभी तरह के कवि बेचता हूँ
: जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ।
जी, ये रूहें हिन्दी के बेटों की
जी, बेचारे किस्मत के होठों की
जी, इनसे जीवन छन्दो में बांधा
जी हाँ, गीतो को होठों पर साधा
जी वो कविता को सौप गया त्यौहार
जी, बेच दिया इसने अपना घर-बार
जी, वो मनु को श्रद्धा से मिला गया
जी, ये मित्रो को अद्धा पिला गया
जी, वो पीकर जो सोया उठा नहीं
जी, इसे पेट भर दाना जुटा नहीं
जी, समझ गया! हाँ कवियत्री भी हैं
जी, कुछ युवती, कुछ अब तक बच्ची हैं
ये बिन मीरा मोहन को ढूंढ रही
वो सूर्पणखा लक्ष्मण को मूढ रही
ये बाँट रही जग को कोरे सपने
वो बेच रही जग को अनुभव अपने
जी, कुछ कवियों से इनका झगड़ा है
जी, उनका पौव्वा ज्यादा तगड़ा है
जी, ये चलती है पेशंट को साथ लिए
जी, वो चलती है पूरी बारात लिए
जी, नहीं-नहीं हँसने की क्या है बात
जी, मेरा तो काम यही है दिन-रात
जी, रोज़ नए कवि है बनते जाते
जी, ग्राहक मर्ज़ी से चुनते जाते
जी, बहुत इकट्ठे हुए हटाता हूँ
जी अंतिम कवि देखो दिखलाता हूँ
जी ये कवि है सारे कवियों का बाप
जी, कवि बेचना, वैसे बिल्कुल पाप।
: क्या करूँ, हाल कर कवि बेचता हूँ
: जी हाँ, हुज़ूर, मै कवि बेचता हूँ।