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हमला / हरिओम राजोरिया

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|रचनाकार=हरिओम राजोरिया
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आतंक का ऐसा घेरा
और यह घना अन्धकार
इससे पहले तो कभी नहीं था
ऐसा विकट सन्नाटा

एकता भी कहाँ बचा पायी उन्हें
एका करके चिल्लाए
तो आ गये धमाके की चपेट में
विरोध करने से हुआ कहाँ विरोध

जिन्होंने बचाव में उठाये हथियार
वे हर हाल में मारे गये
जिन्होंने नहीं उठाये हथियार
वे आ गये निर्दोष मृतकों की सूची में
जो हथियार भर बोले
धर लिये गये हथियार कहने के जुर्म में

जो डरते थे हिंसक आँखों से
बाँधे हुए थे मुँह पर मुसीका
पर भाँप न सके हवा का रुख
और अपने ही कपड़ों की सरसराहट से
आ गये उनके अचूक निशाने पर
कराहें, चीखें और किलकारियाँ
दब गयीं भारी बूटों तले
वे कदमताल करते हुए आये
और मारते हुए गुजर गये।
</poem>