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12:24, 1 अप्रैल 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
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<poem>
आकाश की हंसी
तुम्हारे शब्द हैं
वल्लरि पर खिले
नये फूल-सी
भाषा है
तुम्हारे नेत्रों के पास
काया में अपनी
आकुल दौड़ती
कितनी नदियों का
प्रवाह तुम बांधे हो
फिर भी तुम
सरल हो इतनी
जितना धूप की फुहारों से भींगा
शरद का एक दिन !
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