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एक तुम हो / माखनलाल चतुर्वेदी

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कवि: [[माखनलाल चतुर्वेदी]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी]] |संग्रह= ~*~*~*~*~*~*~*~ }}<poem>
गगन पर सितारे- एक तुम हो,
 
धरा पर दो चरण हैं- एक तुम हो,
 
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं- एक तुम हो,
 
हिमालय दो शिखर है- एक तुम हो,
 
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।
 
कला के जोड़-सी जग गुत्थियाँ ये,
 
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
 
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
 
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।
 
तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
 
तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,
 
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
 
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।
 
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
 
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
 
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
 
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
 
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
 
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
 
रहे मन-भेद तेरा और मेरा,
 
अमर हो देश का कल का सबेरा,
 
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा;
 
कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा
 
प्रलय की आह युग है, चाह तुम हो,
 
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो ।
</poem>
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