आया था एक राजकुमार
भरतवंशी|
छलछलाता हुआ पौरुष.पौरुष।मूर्तिमान काम देव|देव।
उछलती हुई मछलियाँ।
पहली ही दृष्टि में।
बँध गए हम दोनों बाहुबंधन में|में।पिघल - पिघल गया मेरा रूप|रूप।
जान पाई मैं पहली बार
स्त्री होने का सुख।
मैं बाँस का वन थी - वह संगीत था|था।मैं पर्वत थी - वह गूँजती आवाज़|आवाज़।
देह की साधना थी,
आत्मा का आनंद था|था।
उसे पाकर मैं धन्य थी,
मुझे पाकर वह पूर्ण था|था।
'सुरत कलारी भई मतवारी
मैं मेघदूत की यक्षिणी नहीं थी,
नहीं थी मैं नैषध की दमयंती|दमयंती।
मैं शकुन्तला भी नहीं थी,
राधा बनना भी मुझे स्वीकार न था|था।
मैं चल पड़ी -
बियाबान लाँघती,
शिखर - शिखर फलाँगती| फलाँगती।
रास्ता रोका समन्दरों ने,
ज्वालामुखियों ने,
पर
खुशी पर गिरी बिजली तड़प कर|कर।
वह तो दूसरी दुनिया बसाए बैठा है!!
- सोचा था मैंने एक बार को
नहीं, मैं रोई नहीं|नहीं।
मैंने थाम लिया उसका गरेबान;
और घसीट ले आई
चौराहे पर|पर।
नहीं,
अब मुझे उसकी ज़रूरत नहीं|नहीं।
मुझे तो न्याय चाहिए!
न्याय चाहिए उस नई दुनिया को भी
जो उसने बसाई है - मेरा घर उजाड़ कर!!
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