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<Poem>
आज मैं काँप रही हूँ
सदा ऐसा ही होता है
जब जब वे लड़ते हैं
मैं काँपती रहती हूँ
 
वे लड़ते हैं
कभी ज़मीन के लिए
कभी जुनून के लिए
 
वे लड़ते हैं
कभी स्वर्ग की लिप्सा का
कभी राज्य के भोग का
 
वे लड़ते हैं
कभी क्रांति लाते हैं
कभी तख्ता पलटते हैं
 
लड़ते वे हैं
काँपती मैं हूँ
 
लड़े कोई भी
मरे कोई भी
काँपना मुझी को है हर हाल में
 
वे जिनका खून बहाते हैं
वे जिससे बलात्कार करते हैं
वह मेरी कोखजनी है न
 
मुझे काँपना ही है हर हाल में -
 
वे जो खून पीते हैं
मैं उनकी भी तो बेटी हूँ
मैं उनकी भी तो बहन हूँ
 
मैं काँपती हूँ-
 
उनके लिए मैं माँ नहीं रही न
रिश्ते तो मनुष्यों के होते हैं
दरिंदों के कैसे रिश्ते - कैसे नाते
 
दुनिया को अपने रंग में रंगने का उन्माद
तब तब मैं
काँपती हूँ
 
हर माँ काँपती है
और शाप देती है
अपनी ही संतानों को
 
मैं फिर काँप रही हूँ (26 नवंबर की रात से)
जो दरिंदों में तब्दील होकर
लील रही हैं मनुष्यों को!
 
</poem>
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