{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=ताकि सनद रहे / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>
तोड़ने की साजिशें हैं
हर तरफ़,
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !
भींत, ओटे
आँधियाँ तूफान कितने
टूटते हैं रोज उन पर
पश्चिमी नभ से से उमड़कर !
दानवों के दंश कितने
कि फिर भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !
घर नहीं दीवार, ओटे,
घर न छतरी;
झोंपड़ी भी घर नहीं है,
घर नहीं छप्पर .छप्पर।
तोड़ दो दीवार, ओटे,
मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी,
छप्परों को
उड़ा ले जाओ भले.भले।
घोंसले उजडें भले ही,
कि अब भी
घर बसे हैं,
घर बचे हैं !
घर अडिग विश्वास,
निश्छल स्नेह है घर.घर।
दादियों औ' नानियों की आँख में
तैरते सपने हमारे घर. घर।
घर पिता का है पसीना,
घर बहन की राखियाँ हैं,
ये घर खड़े हैं;
पत्नियों की माँग में
ये घर जड़े हैं.हैं।
आपसी सद्भाव, माँ की
मुठियों मुट्ठियों में
घर कसे हैं,
क्यों भला अचरज
कि अब तक
घर बसे हैं-
घर बचे हैं. हैं।
</poem>