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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=
}}
<Poem>
लटकती रहती हैं
फि़रन की खाली बाँहें,
हाथ सटाए रखते हैं
कांगड़ी को पेट से,
राख में दबे अंगारे
झुलसा देते हैं
नर्म गुलाबी जि़ल्द को
सख्त काली होने तक.
और फुहिया बर्फ
कुछ और सफेद हो जाती है
स्याह और सुर्ख पर गिरकर !
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=
}}
<Poem>
लटकती रहती हैं
फि़रन की खाली बाँहें,
हाथ सटाए रखते हैं
कांगड़ी को पेट से,
राख में दबे अंगारे
झुलसा देते हैं
नर्म गुलाबी जि़ल्द को
सख्त काली होने तक.
और फुहिया बर्फ
कुछ और सफेद हो जाती है
स्याह और सुर्ख पर गिरकर !
</poem>