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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तेवरी / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>
रेखाओं के चक्रव्यूह में स्वयं बिंदु ही क़ैद हो गया
यह कैसी आज़ादी आई व्यक्ति तंत्र का दास हो गया

काली ज़हरीली सड़कों पर कोलतार में ख़ून मिल रहा
मेरे भारत में सर्वोदय खंडित स्वर्णिम स्वप्न हो गया

गंगा-यमुना की सब लहरें शीश धुन रही हैं संगम पर
क्यों गुलाब के हर थाले में नागफनी का जन्म हो गया

कुरुक्षेत्र के धर्म क्षेत्र में गीता के उपदेश विफल हैं
दिल्ली-दरवाज़े तक आकर मंत्र क्रांति का स्वाह हो गया

सूखी आँतों, भूखे पेटों को रोटी तो मिल न सकी, पर
रक्त आदमी का कुर्सी के होंठों का सिंगार हो गया

कुर्सी की समिधाओं से अब नई चेतना यज्ञ करेगी
झूठे आश्वासन, नारों से दूषित पर्यावरण हो गया
</Poem>