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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तरकश / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>
एक बड़े ऊँचे फाटक से, आग उठी, सड़कों लहरी
सावधान, सच के प्रह्लादो ! इसमें है साजिश गहरी

दाग रहे वे हर जुबान को, आँख-आँख को वेध रहे
उनके कर्म विधान स्वयं ही, उनकी बात ऋचा ठहरी

कानों में सीसा डाले वे, शीशमहल में सोए हैं
उनकी वर्दी वाली पीढ़ी, सारी की सारी बहरी

बाजारों में ख़बर गर्म है, बिना बिकी कलमें तोड़ें
लोक जलाकर तंत्र बचाएँ, लोकतंत्र के वे प्रहरी

जले हुए अख़बार देखकर, कल मेरी बिटिया बोली ;
सब ग्वाले मिलकर यों नाचें, कुचल जाय कालिय ज़हरी</Poem>