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18:35, 26 अप्रैल 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तरकश / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>
मंच पर केवल छुरे हैं, या मुखौटे हैं
हो गए नाखून लंबे, हाथ छोटे हैं
वे भला कब बाज़ आए, खून पीने से
योजना छल-छद्म हिंसा, कर्म खोटे हैं
हम न समझौता करेंगे, चाकुओं से इन
देश की पसली अभी ये, चीर लौटे हैं
यों धमाके रोज़ घर में जो रहे होते
गिर पड़ेंगे ये बच्चे जो भीत ओटे हैं
हाथ मंत्रित शूल लेकर, यार ! निकलो अब
हर सड़क पर हर गली में, साँप लोटे हैं</Poem>