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17:25, 2 मई 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तरकश / ऋषभ देव शर्मा
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<Poem>बोला कभी तो बोल की मुझको सज़ा मिली
जो चुप रहा तो मौन की मुझको सज़ा मिली
मैं पंक्ति में पीछे खड़ा विराम की तरह
ज़ाहिर है, तेज दौड़ की मुझको सज़ा मिली
की थी दुआ तो शहर में अज्ञातवास की
मैं सैर करूँ भीड़ की मुझको सज़ा मिली
गाईं तो मैंने आपकी प्रशस्तियाँ मगर
आलोचकीय जीभ की मुझको सज़ा मिली
मैंने कहा कि हे प्रभो ! मैं केंचुआ बनूँ
बदले में सीधी रीढ़ की मुझको सज़ा मिली </Poem>