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{{KKRachna
|रचनाकार=जिगर मुरादाबादी
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[[Category:ग़ज़ल]]
शायर-ए-फ़ितरत हूँ मैं जब फ़िक्र फ़र्माता हूँ मैं
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शय शै में किसी शय शै की कमी पाता हूँ मैं
जिस क़दर अफ़साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं
जब मकान-ओ-लामकाँ सब से गुज़र जाता हूँ मैं
अल्लहअल्लाह-अल्लाह तुझ कोख़ुद को ख़ुद अपनी जगह पाता हूँ मैं
हाये हाय री मजबूरियाँ तर्क-ए-मोहब्बत के लिये
मुझ को समझाते हैं वो और उन को समझाता हूँ मैं
हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों कीख़ुद की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं
तेरी महफ़िल तेरे जल्वे फिर तक़ाज़ा क्या ज़रूर
एक दिल है और तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ "ज़िगर"
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं
</poem>
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