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Kavita Kosh से
तुझ से खेली हैं वह मह्बूब हवाएं महबूब हवाएँ जिन में
उसके मलबूस की अफ़सुरदा अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से मेह्ताब का नूर
तू ने देखी है वह पेशानी वह रुख़सार वह होंटहोंठ
ज़िन्दगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उठी हैं वह खोई -खोई साहिर आंखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हमने
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास -ओ -हिर्मां के दुख -दर्द के म’आनि सीखे
ज़ेर द्स्तों के मसाएब को समझना सीखा
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तौले हुए मन्डलाते मंडराते हुए आते हैं
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बह्ता है
आग -सी सीने में रह -रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है