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{{KKRachna
|रचनाकार=हिमांशु पाण्डेय
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अहं रहित मह मह महकंेगे तेरे प्राण सुमन मधुकर
स्निग्ध चाॅंदनी नहला देगी चूमेगा मारुत निर्झर
तुम्हें अंक में ले हृदयेश्वर हलरायेगा मधुर मधुर
टेर रहा है मूलाधारा मुरली तेरा मुरलीधर।।106।।

उर वल्लभ के पद शतदल में मरना मिट जाना मधुकर
रस समाधि में खो जातेे ही होगा सब अशेश निर्झर
अनजाने अबाध उमड़ेगी भावों की उर्मिल सरिता
टेर रहा है भावमालिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।107।।

एक न एक दिवस जीवन में मरण सुनिश्चित है मधुकर
कभीं मृत्यु विस्मृत न रहे यह सुधि जागृत रखना निर्झर
सात दिनों में कोई दिन निश्चित आयेगा लिये मरण
टेर रहा है मृत्युविजयिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।108।।

संसारी तू तन सम्हालता मन विचरता मुक्त मधुकर
तुम्हे न पता मृत्यु तन की मन साथ सदा रहता निर्झर
मन की ही सम्हाल करता चल सदा विवेकी धीर मना
टेर रहा चैतन्यरुपिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।109।।

तूू न जगत का है अपने प्रभु का है यही सोच मधुकर
नहीं किसी प्रमदा का नर का केवल हरि का ही निर्झर
जीवन मरण बना ले दोनों सच्चा स्मृतिरसमय पंकिल
टेर रहा है मंगलसदनी मुरली तेरा मुरलीधर।।110।।
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